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जिनमति
'जिनु, इन दिनों कल्याणी अपनी हवेली में आती-जाती है, नहीं?' यशोदत्ता ने अपनी लाड़ली बेटी को बड़े प्यार से पूछा। 'हाँ माँ, मेरी सहेली जो बन गयी है! 'राजकुमार के महल की दासी है ना, यह तो?' 'हाँ माँ, बड़ी चतुर और प्रेमभरी है। बातें भी कितनी अच्छी-अच्छी करती है! जिनमति ने कल्याणी के बारे में अपना मत व्यक्त किया।
'आखिर सहेली किसकी है? कोई ऐरी-गैरी तो सहेली बनेगी ही कैसे मेरी लाड़ली की?' यशोदत्ता की आँखों में अपार वात्सल्य छलक उठा।
इतने में सेठ और लड़के आ गये भोजन के लिये | माँ और बेटी ने सबको भोजन परोसा। सबके भोजन करने के पश्चात् यशोदत्ता और जिनमति ने साथ बैठकर भोजन किया। भोजन से निवृत होकर जिनमति अपने गृहमंदिर में पहुँची। परमात्मा की वन्दना-स्तवना करके अपने कमरे में गयी तो वहाँ कल्याणी उसकी प्रतीक्षा करती खड़ी ही थी।
'कल प्रातः मैं तुझे लेने के लिए आऊँगी।' 'कल ही?' जिनमति आश्चर्य एवं रोमांच से सिहर उठी।
हाँ कल ही, आयेगी ना? तैयार रहना...अच्छा, तो मैं चलूँ। कहकर वह चली गई। जिनमति उसे जाती देखती ही रही। उसके मनोमस्तिष्क में अनेक विचार-प्रवाह आ-आकर उसे झकझोरने लगे। एक सुखद कल्पना उसके अंग
अंग में सिहरन पैदा कर रही थी। उसका मन-मयूर झूम उठा था!' कल कितने करीब से अपने मनोदेवता को नयनों में समा लूँगी! पर वे नहीं होंगे वहाँ तो? उनको जिससे प्यार है, स्नेह है, ऐसी युवराज्ञी से मिलकर ही मैं नाच उलूंगी। युवराज्ञी कितनी भाग्यशाली है? उसे युवराज का कितना प्यार मिल रहा है? वह युवराज की कितनी सेवा कर पाती है? काश! मैं भी मेरा पूरा जीवन युवराज के चरणों में अर्पित कर पाऊँ? विलीन कर दूँ तो?
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