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मन की बात ___ 'बड़ी शर्मिली है न?' कामगजेन्द्र ने आज सर्वप्रथम जिनमति के बारे में अपनी जुबान खोली।
'आपकी उपस्थिति में तो बेचारी शरमा ही जायेगी न?' कामगजेन्द्र मौन रहा। प्रियंगुमति को लगा कि अब बात करने का अच्छा मौका है।
'मुझे इससे बहुत प्यार हो गया है। इतना अपनत्व हो चुका है कि बस...अपने पास ही रख लूँ इसको सदा के लिए! ऐसा ही आता है दिमाग में! __'तो फिर रख ले न!' कामगजेन्द्र के हास्य से वातावरण भर गया।
‘पर आपकी इजाजत भी तो चाहिये ना!' 'अरे! भला इसमें मेरी इजाजत की क्या जरूरत है?' 'क्यों नहीं? मैं कोई इसे अपनी दासी बनाकर थोड़े ही रखूगी।
'तो?' कामगजेन्द्र प्रियंगुमति को देखता ही रहा। उसकी पारदर्शी आँखों में प्यार, समर्पण और सहजता का सागर उछल रहा था।
'तो क्या?' उसे तो मेरी बहन बनाकर रख सकती हूँ। अब बताइये, इसमें आपकी इजाजत चाहिये या नहीं?' 'आज तेरी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है।' 'सच-सच बता दूँ? 'निःसंकोच।' 'आप जिनमति के साथ शादी कर लो।'
कामगजेन्द्र स्तब्ध सा रह गया। हालाँकि उसकी मनोकामना यही थी पर प्रियंगुमति स्वयं यह प्रस्ताव रखेगी ऐसा तो उसने सोचा भी नहीं था। वह सिहर उठा। उसकी आँखें प्रियंगुमति की आँखों में खो गई। प्रियंगमति ने बड़े प्यार से उसके हाथ को अपने हाथ में लिया और सहलाते हुए बोली :
'मेरे देव, मेरी प्रार्थना को स्वीकार करो।' 'प्रियंगु, तू क्या बोल रही है? कुछ सोचा भी है इस विषय में?' 'मैं आपका विचार नहीं करूँगी तो किसका करूँगी? आप कहिए न खुलकर | मुझसे आप परदा क्यों रखते हैं? क्या आप जिनमति से मन ही मन प्यार नहीं करते? क्या आप उसके बिना बेचैन नहीं हैं?'
'तेरी बात सच है, पर मैं शादी नहीं कर सकता!
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