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अनुभूत आश्चर्य नहीं सूझ रहा है। मैं भी मूढ़ बन चूका हूँ।' इतने में सूर्योदय हो गया। उन दोनों ने मुझसे कहा : ___ 'राजकुमार, अब तो सूर्योदय हो चूका है, इसलिए राजकुमारी का अग्निसंस्कार कर देना चाहिए।' यों कहकर दोनों गयी और चन्दन की लकड़ियाँ बीनकर ले आयी। एक बड़ी चिता तैयार की और राजकुमारी बिन्दुमति के देह को चिता पर रखा। आग सुलगा दी गई। ज्यों चिता धधक उठी... उन दोनों का विलाप भी बढ़ता ही चला : ओ सखि, तू हमें छोड़कर कहाँ चली गयी? तेरे बिना हम कैसे जियेंगे? हमारा जीना भी किस काम का? हम भी तेरे साथ ही जलेंगे।' यों बोलती हुई दोनों चिता में कूद पड़ी!!!
मैं झल्ला उठा...दौड़ा उन्हें पकड़ने को। 'ऐसा साहस मत करो, इस तरह जल मरना अनुचित है!' मैं चिल्लाता रहा और वे दोनों कन्याएँ आग में जलकर राख बन गई। मेरे शरीर में मानों एक साथ हजारों तलवारों के घाव की वेदना हो आयी। मेरी आँखें बराबर रोती ही चली... 'अरे रे...यह क्या बन गया? मेरी खातिर, मेरे विरह में पागल बनकर बिन्दुमति ने मौत को गले लगाया। उसके पीछे ये दो कन्याएँ भी जल मरी। तीन-तीन स्त्रियों की हत्या के पाप से मैं घिर गया । अब मेरी जिन्दगी का मतलब ही क्या रहा?' और मैंने भी चिता में कूद पड़ने का संकल्प किया। __प्रियंगुमति कामगजेन्द्र के मुँह से कभी नहीं सुनी हुई बातें सुन रही थी। काफी उत्तेजना और बेबसीभरा माहौल बन गया था। कामगजेन्द्र भावुकता के प्रवाह में खींचा जा रहा था।
'देवी, उस समय मेरे कानों पर एक आवाज सुनायी दी! 'हे प्रिये, देखो इस पत्थरदिल व्यक्ति को। इसकी प्रिया चिता की लपटों में लेटी है और यह पास में खड़ा-खड़ा देख रहा है!' एक दूसरी आवाज आती है। 'प्रिये, पति के पीछे पत्नी प्राणों का त्याग करे वह उचित है, पर स्त्री की तरह पुरुष को आत्मघात करना उचित नहीं है, चूंकी पुरुष सत्वशील होता है। कायर की भाँति जिन्दगी हार जाना उसके लिए कलंक है। किसी विद्याधर युगल की इस बातचित ने मुझे भीतर तक संवेदना से भर दिया | मन में सोचा : 'कायर कौन? धधकती चिता में कूद गिरनेवाला या नहीं कूदनेवाला?' खैर, उस समय मेरे मनोमस्तिष्क में तुम्हारा विचार कौंध उठा : 'मैं यदि आग में कूद जाऊँ तो प्रियंगु और जिनमति का क्या होगा? वे दोनों मेरे बिना कैसे
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