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मैं धन्य बना!
५७ वहाँ मैंने दो बच्चों को देखा। वे भी मुझे कौतूहल से निहार रहे थे। थे तो बच्चे ही, परन्तु उनकी ऊँचाई मेरे से अट्ठारह हाथ ज्यादा थी। सौन्दर्य उनके अंग-अंग से टपक रहा था, अनेक सुंदर अलंकार उन्होंने पहने थे। मुझे बड़े प्यारे से लगे बच्चे । मैंने उनसे प्रश्न किया : 'ओ प्यारे बच्चों! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।' मेरी आवाज सुनकर वे दोनों ठिठक गये। वे नजदीक आये! कौतूहल के कारण कमर से झुककर मुझे ठीक वैसे देखने लगे जैसे कि अपन कीड़े या अन्य बारीक जन्तु को देखते हैं! वहीं एक ने दूसरे से कहा : 'देखोदेखो! दोस्त, मनुष्य के आकार वाले और मनुष्य की भाषा बोलते हुए इस कीड़े को तो देखो!' दूसरा बालक भी झूम उठा : ‘सच है तेरा कहना! कितना प्यारा लगता है! मनुष्य के आकार का और मनुष्य की भाषा में बोलता हुआ कीड़ा हम ने पहली बार देखा! यह है कौन?'
'शायद मुझे लगता है यह वन्य प्रदेश के किसी पशु का बच्चा होगा। बेचारा माँ से जुदा हो गया लगता है। दूसरे बच्चे ने कहा : ‘पर अपने प्रदेश में ऐसे वन्य प्रदेश है ही कहाँ? ऐसे जानवर भी तो नहीं है ना? अपने क्षेत्र के आस-पास सारे ही नगर हैं। सारे नगरों के जनपथ जनसमूह से छाये रहते हैं। अपने महाविदेह में वन्य पशु कहाँ रास्ते में पड़े हैं, जो इस तरह नगर में चले आयें | यह वन्य पशु नहीं लगता, क्योंकि इसने तो इतने सारे आभूषण पहन रखे हैं। ये अलंकार मनुष्य के द्वारा ही निर्मित हैं और मनुष्य के पहनने के लिये ही हैं!
इस बात से मुझे यह ख्याल आ गया कि 'मैं महाविदेह की धरती पर आ पहुँचा हूँ।' मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली। इतने में उस बच्चे ने अपने दोस्त से कहा : 'यह कौन है? इसका निर्णय अपन नहीं कर सकेंगे। अपन तो इसको परमात्मा सीमंधर स्वामी के समीप ले चलें। वहाँ समवसरण में इसे देखकर कोई तो अवश्य ही परमात्मा से इसके बारे में प्रश्न करेगा कि 'यह कौन है?'
दूसरा मित्र भी खुश होता हुआ ताली देने लगा : 'हाँ तेरी बात ठीक है। सर्वज्ञ परमात्मा के पास ही जवाब मिल जायेगा!' ___ मैं तो यह सुनकर मारे खुशी के झूम उठा। 'मुझे सीमंधर परमात्मा के दर्शन होंगे! उनके चरणों में बैठने का मौका मिलेगा। मेरे भाग्य कितने उजले हैं!' मेरा तो रोयाँ-रोयाँ अनंत आनन्द से भर गया। इतने में उनमें से एक ने मुझे ऐसे उठाया जैसे कि अपन किसी गोरैया के बच्चे को उठाते हैं। हाँ, मुझे पीड़ा न पहुँचे इसका ध्यान उन्होंने पूरा-पूरा रखा था। मैंने सोच रखा था कि
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