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१९
दीदी अनेक पत्नियाँ करने की?' जिनमति ने प्रश्न किया।
'तीर्थंकरों ने परस्त्रीगमन का निषेध किया है। अपनी पत्नी के साथ सहवास की मनाही नहीं की है।' 'पर पत्नियाँ कितनी?' 'पुरुष की पालन करने की, रक्षण करने की और संतुष्ट करने की शक्ति हो उतनी।
‘पर ऊपर-ऊपर से देखा जाय और आत्मदृष्टि से सोचा जाय तो यह रागदशा को पुष्ट करना ही होगा न? इससे तो कामवासना प्रबल बनेगी ना? इससे समाज का कितना अहित होगा?'
'दीदी, बस वही तो भ्रमणा है। क्या जिसे एक ही पत्नी हो उसकी कामवासना प्रबल नहीं बनती है? क्या एक ही स्त्री में लुब्ध जीवात्मा दुर्गतिगामी नहीं बनती? और क्या अनेक पत्नी वाले मुक्ति के यात्री नहीं बनते? एकान्त से तो कोई नियम नहीं है।'
'हाँ, वह तो है ही। अनेक स्त्रियों का त्याग करके भी कई जीवात्माएँ मुक्तिगामी बनी हैं।'
"तो फिर इसका अर्थ यह हुआ कि एक पत्नी हो या अनेक पत्नी हो, मुक्त बनने के लिए तो आसक्ति में से बाहर निकलना जरूरी है। ऐसा कोई नियम नहीं है कि एक पत्नीवाला जल्द अनासक्त बनता है और बहुपत्नीवाला देर से अनासक्त बनता हो... सच तो यह है कि जिसकी ज्ञानदृष्टि खुल जाय वह अनासक्त बनता है, चाहे फिर वह एक पत्नीवाला हो या अनेक पत्नीवाला हो।' 'तेरी बात तो जिनु, विचारणीय है।'
'नहीं दीदी, विचारने जैसी क्यों? मेरी दृष्टि में तो यह बात स्पष्ट, सत्य एवं सहज लगती है। तुम्हीं सोचो : जो पुरुष एक ही स्त्री में, अपनी पत्नी में, सन्तुष्ट नहीं होते हैं, यदि उन्हें दूसरी पत्नी के लिए निषेध कर दें तो क्या वे दुराचार की राह पर नहीं चले जाते? वह तो कितना बड़ा पाप होगा पर यदि पुरुष समर्थ है, दूसरी स्त्रियों का पोषण करने में, संतुष्ट करने में सक्षम है और अनेक स्त्रियों को किसी भी तरह के संघर्ष के बिना सहजीवन का आनन्द दे सकता हो तो वह कर सकता है दूसरी स्त्री से शादी, बीचमें...,थोड़ा रुककर उसने बात आगे बढ़ाई :
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