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सही दिशा की ओर सब चल रहा है। यह मनुष्यजन्म तो मौका है, इस घटनाचक्र से मुक्त होने के लिये प्रचंड पुरुषार्थ करने का! मुक्तिमार्ग तेरी आँखों के सामने है। ___ एक बात अच्छी तरह से समझ लेना कि मुक्त... सारे कर्मों के बन्धनों से मुक्त आत्मा का सुख ही सदाकालीन शाश्वत्, अखंड और अविकल है। वह सुख प्राप्य है। पर इसके लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करनी होगी। वीतराग के बतलाये मार्ग की साधना करनी होगी। कठोर कर्मों के सामने धीर-वीर बनकर युद्ध छेड़ना होगा। विजय की वरमाला तेरा इन्तजार कर रही है। कामगजेन्द्र! तेरा जीवन इसलिए ही है! प्रबुद्ध बन! कब तक मानस का हंस गन्दी-घिनौनी तलैया के पानी में खेलता रहेगा? कामगजेन्द्र का हृदय हर्ष से परिपूर्ण बन गया। उसकी पारदर्शी आँखों के किनारे आँसुओं का काफिला उतर आया। उसकी अन्तरात्मा विषयसुखों से विरक्त बनने लगी। परमात्मा के चरणों में अपना जीवन समर्पित करके साधना के सफलतम शिखरों पर पहुँचने की अभीप्सा आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में जाग उठी। उसने खड़े होकर परमात्मा के चरणों में पुन:-पुनः वंदना की। प्रियंगुमति ने भी भावपूर्ण मन से वन्दना की और दोनों समवसरण से बाहर निकले। रथारूढ़ बनकर अपने पड़ाव पर जा पहुंचे।
दैनिक कृत्यों से निवृत होकर कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति अपने आवास में जाकर बैठे | कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की ओर देखकर कहा : । ___'देवी! अपन को यहीं से वापस लौटना है। अब उज्जयिनी जाने का कोई प्रयोजन नहीं है। मेरा मन वैषयिक सुखों से दूर-दूर जा रहा है। अब कोई आकर्षण नहीं रहा है! 'सच है स्वामिन्! विरक्त आत्मा को अनुरक्ति पसन्द कैसे आयेगी?'
"देवी मेरे मन में ऐसा अपूर्व भाव पैदा हुआ कि इस संसार को छोड़कर, संयम की राह को अंगीकार करके कर्मों का नाश करना है। आत्मा की स्वभावदशा को पाना है।'
'आपकी मनोकामना उत्तम है। आपका भाव पवित्र है, श्रेष्ठ है। मैं भी इन्हीं भावों में डूबी हूँ| जब से त्रिभुवनतारक परमात्मा महावीर देव की गंभीर वाणी को सुना है, मेरा मन भी विरक्ति की ओर खींचा जा रहा है। मैं भी आपके साथ संयमधर्म को स्वीकार करूँगी और आत्मा की शुद्धावस्था को पाऊँगी' प्रियंगुमति के शब्दों ने कामगजेन्द्र के प्राणों को आनंद से भर दिया।
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