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सही दिशा की ओर
दूर से देवदुंदुभि की ध्वनि सुनाई देने लगी। उतुंग अशोक वृक्ष की डालियाँ झूल रही थी। कामगजेन्द्र की आत्मा पुलकित बन उठी। उसका रोम-रोम विकस्वर होने लगा। रथ समवसरण के समीप जा रहा था। समवसरण में आसीन परमात्मा महावीर स्वामी के दर्शन हुए | कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति के मन झूम उठे। समवसरण के द्वार पर रथ में से उतरकर दम्पति समवसरण के सोपान चढ़ने लगे| परमात्मा के सामने आते ही दोनों ने मस्तक पर अंजलि रचाकर, प्रणाम किया, तीन प्रदक्षिणा देकर भगवन्त के सामने सविनय बैठ गये। कामगजेन्द्र की निगाहें परमात्मा के सौम्य एवं शीतल आनन पर टिकी थी। करुणा से भरे वीतराग के नयनों की आभा से कामगजेन्द्र की आत्मा प्रसन्न बन गई। उसने परमात्मा से विनयपूर्वक प्रश्न किया।
'हे भगवन्त, गत रात्रि में मैनें जो अनुभव किये, क्या वे अनुभव सच हैं या फिर मेरी चेतना ऐन्द्रजालिक व्यामोह में फँसी रही? इसका प्रत्युत्तर देने की कृपा करें। ___ 'हे महानुभाव तेरे सारे अनुभव सच हैं।' सर्वज्ञ की मीठी मधुर वाणी ने कामगजेन्द्र एवं प्रियंगुमति के चेहरे पर गंभीरता एवं आश्चर्य के भावों का सम्मिश्रण पैदा किया। भगवंत ने कामगजेन्द्र को कहा : ___ 'हे कामगजेन्द्र, कर्मों की गति विषम है। अनंत-अनंत जीवात्माएँ कर्मों की पराधीनता से इस दु:खमय संसार में अनंत-अनंत दुःखों को झेलती हुई भटकती हैं। पुण्यकर्मों के उदय से जब जीवों को क्षणिक सुख प्राप्त होते हैं तब जीव पाप कर्मों की भयंकरता को भूल जाता है। अशाश्वत् भोगसुखों में मूढ़ सा बन जाता है और पाप कर्मों का बंध करता है, जब वे पापकर्म उदय में आते हैं तब दारुण दुःखों की दाहकता उसे बेबश बना देती है। ऐसा दुःखमय यह संसार है। पुण्यकर्मों के उदय से जीवात्माओं को जब प्रियजनों के संयोग मिलते हैं, जीवात्मा स्नेह के बंधनों से बंधता है। पर जब उस संयोग का वियोग होता है, तब उसकी वेदना की सीमा नहीं रहती है। इसी तरह पाँच इंद्रियों के विषयोपभोग करते हुए जीव जब रोगों से घिरते हैं, विषयसुख दूर-दूर जाते हैं तब उसके दुःखी मन को कौन समझा सकता है? विषयवासनाओं के पाश में फँसी जीवात्मा नरक-तिर्यंच वगैरह दुर्गतियों में भटक जाती है। वहाँ पर असंख्य वर्षों तक शारीरिक एवं मानसिक त्रास का शिकार बन जाती है।
कामगजेन्द्र, यह विषचक्र आजकल का नहीं है, अनंत-अनंत काल से यह
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