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दो देह एक प्राण
३० ___ प्रियंगुमति खड़ी हो गई। जिनमति को साथ आने के लिए कहा पर जिनमति ने कामगजेन्द्र के भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी खुद उठा रखी थी, अतः उसने कहा- "दीदी, तुम जाओ। मैं रसोईघर में जाऊँगी। समय हो चुका है। ___ प्रियंगुमति जब कामगजेन्द्र के पास पहुँची, कामगजेन्द्र रथ में बैठ गया था। प्रियंगुमति भी रथ पर बैठ गई। रथ नगर के बाहर उद्यान की तरफ दौड़ने लगा | जब रथ नगर के बाहर शून्य प्रदेश में आ पहुँचा तब कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के चेहरे पर नजर फेंकी। 'देवी! 'स्वामिन! 'जिनु के लिए नया महल बनवाया?' 'राजपरिवार की यही परम्परा है।' 'जिनु को वहाँ अच्छा लगेगा?' 'नहीं। 'तो फिर? 'वह इसी महल में रहेगी। 'मुझे था ही कि तेरे बिना वह नये महल में नहीं रह सकती।' 'कैसे रहेगी? मेरी दूसरी आत्मा जो है।' 'पहली आत्मा कौन है?' 'आप।'
उद्यान आ गया। रथ को उद्यान के बाहर छोड़कर दोनों ने उद्यान में प्रवेश किया । कोयल कुहक उठी । फुलों की खुशबू महक रही थी। मन्द-मन्द समीर झूम रहा था। निसर्ग की शोभा ने दोनों का स्वागत किया।
एक वन-निकुंज में, सुन्दर लतामंडप तले जाकर दोनों बैठ गये। कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की तरफ देखा । प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की निगाहों को समझ लिया।
कामगजेन्द्र के भावालोक में प्रियंगुमति के अलावा दूसरा कोई दृश्य नहीं था। मात्र प्रियंगुमति के रूपलावण्य की ही रसिकता नहीं है। स्त्री का रूप
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