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बिन्दुमती
। ८. बिन्दुमती
अलकापुरी के उद्यान से एक सुहावने बगीचे में कामगजेन्द्र ने अपना पड़ाव डाला है। चारोंतरफ सैनिकों के तम्बू लग चुके हैं। बीचोबीच कामगजेन्द्र के लिए एक सुन्दर आवास खड़ा किया गया है।
निशा की नीरवता छायी है। गगन के नीलपट पर रंगबिरंगे फूलों सी तारों की चादर बिछी है। सैनिकों के वार्तालाप, हास्य-विनोद और हँसी-मजाक की आवाजों के अलावा शान्ति बनी है। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति के साथ वार्ताविनोद करते हुए निद्राधीन हो जाता है।
मध्यरात्रि का समय था, पड़ाव के चारों ओर सैनिकों के दस्ते बराबर गश्त लगा रहे थे।
कामगजेन्द्र को लगता है किन्हीं कोमल हथेलियों का स्पर्श उसे जगा रहा है। उसकी आँखें खुल जाती है। वह ठिठक जाता है। उसके सामने दो सौन्दर्यवती युवतियाँ खड़ी थी।
बेनमून संगमरमर में तराशा हुआ रूप। लावण्य के लास्य से भरा पूरा बदन । शरीर का एक-एक अंग सौष्ठवयुक्त और गदराया हुआ । सुन्दर मूल्यवान वस्त्रों में सजा शरीर और उस पर बहुमूल्य अलंकार | चेहरे पर चाँदी सा चमकता हास्य और आँखों में प्यार की नमी। कामगजेन्द्र को लगा कि 'क्या वह वास्तिविक दृश्य देखता है या स्वप्नलोक में है?' उसने अपनी आँखों को हथेलियों से मसला... फटी-फटी आँखों से वह उन दोनों युवतियों को देखता ही रहा। 'तुम दोनों कौन हो और यहाँ किसलिये आयी हो?' 'कुमार, हम विद्याधर कुमारिकाएँ हैं और एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपके पास आयी हूँ।' 'ऐसा क्या कार्य है जो आधी रात गये तुम्हें यहाँ आना पड़ा?' 'हमें पहले वचन दें कि आप हमारी आज्ञा पूरी करेंगे।' 'कुमारिकाओं! हमारे दर पर आशा लेकर आने वाले किसी को हम निराश नहीं करते, यह तो हमारा कुलाचार है।'
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