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उज्जयिनी की राजकुमारी
४५ चित्रकार ने कामगजेन्द्र का नयनरम्य चित्र बना दिया । कामगजेन्द्र ने उसे खूब पसंद किया। उसने चित्रकार को मूल्यवान स्वर्णहार देकर सन्तुष्ट किया... और उज्जयिनी की ओर भेज दिया।
चित्रकार ने उज्जयिनी जाकर राजा अवंति को कामगजेन्द्र का चित्र बतलाया । राजा मन्त्रमुग्ध सा उसे निहारता ही रहा। चित्रकार ने कामगजेन्द्र का परिचय भी दिया। चित्र अन्तःपुर में भेजा। रानी ने राजकुमारी को चित्र बतलाया। राजकुमारी तो चित्र पर आँखें रखते ही मुग्ध हो गयी। उसकी
आँखें चित्र पर जम गयी। उसका रोम-रोम थिरक उठा। उसने मन ही मन निर्णय किया : 'मेरा जीवनसाथी तो इसे ही बनाऊँगी।' मानों जनम-जनम की प्रीत के फूल खिल उठे । अनजान अजनबी में अपनत्व की आस्था जाग उठी। अपनी मनोकामना वह रानी से न छिपा सकी। रानी ने राजा को सहमति दे दी। राजा ने मंत्री को बुलवाकर सूचना दी कि 'तुम अरुणाभनगर जाओ और राजा कामगजेन्द्र से प्रार्थना करो कि वे राजकुमारी के साथ पाणिग्रहण करने के लिए उज्जयिनी पधारें!
मंत्री अपने साथियों के साथ चल पड़े। कुछ ही दिनों में अरुणाभ की सीमा उन्होंने छू ली। कामगजेन्द्र को उन्होंने अवंतीराजा का संदेश देकर उज्जयिनी पधारने का सस्नेह निमंत्रण दिया।
कामगजेन्द्र की खुशी का पार नहीं रहा। उसने अपनी दोनों रानियों को सारी बातें कही। प्रियंगुमति ने अल्प दिनों में ही उज्जयिनि की ओर प्रयाण करने की तैयारियाँ कर ली। मंगल मुहूर्त में अपनी पूरी तैयारी करके कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के साथ उज्जयिनी की ओर प्रयाण किया । ___ कामगजेन्द्र की कामनाएँ मूर्त बनने लगी थी। इसकी कल्पना उसें ही नहीं बल्कि समूचे परिवार को खुशहाली बाँटती थी। पर किस्मत की कालीन पर कुछ और ही रंग बिखरे थे, जो कि कामगजेन्द्र से अनजान थे। कामगजेन्द्र को कैसे पता लगे कि वह निकला है कहाँ जाने के लिये और पहँचेगा कहाँ पर! उसका प्रारम्भ उसे किसी अज्ञात की ओर प्रेरित कर रहा है। इसकी कल्पना कामगजेन्द्र को नहीं थी।
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