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अनुभूत आश्चर्य
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|९. अनुभूत आश्चर्य
प्रियंगुमति के प्राण पीड़ा से बैचेन बने जा रहे थे। उसकी आँखों की पुतलियाँ जलविहीन तालाब में निष्प्राण अटक जाने वाली मछलियों सी छटपटा रही थी। बार-बार उसकी पलकों की ओट तले बेचैनी के बादल आआ कर बरसते थे। आकाश की ओर टकटकी बाँधे वह बैठी थी। उसका मन अनेक आशंकाओं से घिर गया था। कामगजेन्द्र के बगैर जिन्दगी की कल्पना ही उसे रुला देती थी।
रात्रि का समय सरक रहा था । अन्तिम प्रहर पूरा होने में था। क्षितिज पर हल्की सी रौशनी दमक रही थी। इतने में एक विमान तीव्र गति से आता दिखायी दिया। प्रियंगुमति के प्राण पुलकित हो उठे। वह आवास के बाहर आयी। विमान को समीप के मैदान में उतरता उसने देखा। विमान में से कामगजेन्द्र और उन दोनों विद्याधर सुन्दरियों को उतरते देखा ।
कामगजेन्द्र उन दोनों के साथ पड़ाव पर आ गया। प्रियंगमति के स्वागत करते हुए होठों पर हास्य बिखर आया। विद्याधर कन्याओं ने प्रियंगुमति से कहा : 'देवी! आपकी धरोहर आपको वापस करते हैं। हमारे ऊपर गुस्सा मत करना!' और चेहरे पर स्मित की चाँदनी छिटकाती हई दोनों कन्या, आकाश मार्ग से चली गई। कामगजेन्द्र की आँखें आकाश में स्थिर सी हो गई। प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की ओर देखा, उसके चेहरे पर ग्लानि, उदासी और गम्भीरता के मिले-जुले भावों का मेला जमा था । उसका शरीर थका हुआ था। कामगजेन्द्र के चरणों में प्रणाम करके अत्यन्त मृदु स्वरों में उसने कहा :
'स्वामिन! आप थक गये लगते हैं, विश्राम कीजिये।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति पर निगाहें जमायी। उसकी आँखों में अलसाती आर्द्रता को वह देखता ही रहा।
'अब क्या विश्राम करूँ? प्रातः काल तो हो चूका है।' 'तो क्या अभी आगे प्रयाण करना है?' 'प्रयाण? किस ओर? अब उज्जयिनी की ओर प्रयाण नहीं करना है!' कामगजेन्द्र के चेहरे पर रंजिश की रेखाएँ उभर आयी। प्रियंगुमति का कौतूहल बढ़ गया।
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