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उज्जयिनी की राजकुमारी
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। ७. उज्जयिनी की राजकुमारी )
दिन पंखेरू बन कर उड़ते जा रहे हैं। समय की शून्यता अतीत की आग में स्वाहा बनती जाती है। कामगजेन्द्र जिनमति, प्रियंगुमति और राजकुमार दिशागजेन्द्र (प्रियंगुमति का पुत्र) के स्नेहपूर्ण सहवास में अपनी जिन्दगी का सफर तय कर रहा है।
अरुणाभ नगर में पिछले दिनों से एक विदेशी चित्रकार चर्चा का विषय बन चुका है। एक से एक सुन्दर चित्रों की प्रदर्शनी में हजारों नगरजनों ने उसको साधुवाद दिया है। वह चित्रकार अपने साथ एक सुन्दर चित्र लेकर आया है। राजसभा में वह चित्र लेकर आता है। कामगजेन्द्र उसका स्वागत करता है। चित्रकार अपना चित्र कामगजेन्द्र के हाथों में देता है।
कामगजेन्द्र की आँखें उस चित्र पर जा चिपकती है। वह उस चित्र को देखता ही रहता है, टुकुरटुकुर | वो चित्र है एक राजकुमारी का, पर लगता है ऐसा कि स्वर्ग की अप्सरा की वह अनुकृति हो! कामगजेन्द्र चित्रकार की
ओर देखता हुआ बोल उठता है : ___चित्रकार, किसी ज्ञानीपुरुष ने बिलकुल सही कहा है कि 'राजा, चित्रकार और कवि ये तीनों मरकर नरक में ही जाते हैं।'
'महाराज कुमार यह कैसे हो सकता है?' चित्रकार ने साश्चर्य अपनी जिज्ञासा व्यक्त की!
'चूंकि पृथ्वी पर जिसका अस्तित्व ही नहीं होता है वे सब राजा, चित्रकार और कविजन करते हैं! निरा झूठ! और झूठ का फल तो नरक ही होता है।'
'राजकुमार, क्षमा कीजियेगा। राजा के लिए तो आपकी बात मानी भी जाय, क्योंकि राजनीति तो छल-कपट से भरी होती है। हिंसा, क्रूरता और छलना तो राजनीति के अभिन्न अंग से बन जाते हैं, कभी-कभी! इसलिए राजा नरक में जाय, यह तो मान भी लिया, पर कवि और चित्रकार के लिए तो आपकी बात जरा अनुपयुक्त सी प्रतीत होती है। आखिर वे तो आँखों देखा, कानों सुना और अनुभूत सत्य को ही अभिव्यक्त करते हैं। हाँ, उनमें कल्पनाओं के रंग वे जरूर भरते हैं, पर वास्तविकता के सौन्दर्य को जरा भी विकृत किये बिना।'
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