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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काम गजेन्द्र थी। राजमहल का झरोखा और सेठ की हवेली का झरोखा, दोनों ठीक आमने-सामने थे। जब सूर्य विश्वयात्रा पूरी करके अस्ताचल पर संध्या के आँचल तले छिप जाता तब कामगजेन्द्र अपनी सहचारिणी प्रियगुंमति के साथ वार्ता-विनोद करता हुआ पश्चिम के झरोखे में बैठा करता था। उसी समय सेठ की हवेली का झरोखा एक देवकन्या जैसी रूपवती युवती के सौंदर्य से झगमगा उठता था। उस यौवना की चंचल दृष्टि बार-बार राजमहल के झरोखे पर चली आती थी। एक दिन कामगजेन्द्र की निगाहें भी चली गयी उस हवेली के झरोखे में खड़ी सद्यस्नाता नवयौवना के चेहरे पर | दोनों की निगाहें मिल गयी। एक पल...एक क्षण दोनों स्तब्ध रह गये और प्रीत की रंगोली रच गई आँखों ही आँखों में | प्रेम के फूल खिलने लगे नयनों के बाग में | प्यार के बादल उमड़ने लगे मन के गगन में। कामगजेन्द्र के मनमस्तिष्क में वह युवती समा गई। युवती तो पहले से ही राजकुमार को मन ही मन अपना प्रियतम मान बैठी थी। अब कामगजेन्द्र का मन प्रियंगुमति से उखड़ा-उखड़ा रहने लगा। उसके दिल में एक बात बार बार उठती कि- 'उस युवती के बिना सब कुछ सूना है। जीवन अधूरा है।' कामगजेन्द्र तो बस उस नवयौवना में ही अपना सर्वस्व देखने लगा। __पास में ही सुन्दर पत्नी है। प्रेम का प्रदान करती है, स्नेह की सरिता बहाती है, फिर भी दूर रही एक अनजान यौवना के यौवनापाश ने कामगजेन्द्र के दिलो-दिमाग को बाँध लिया। आँखों में उसी यौवना के सपने सजने लगे। मन और नयन दोनों उस यौवना को पाने के लिए बेचैन बन उठे । मनुष्य मन की कैसी अस्थिरता है! भावों की कितनी परिवर्तनशीलता है! प्रियंगुमति कुशल थी। उसकी पैनी दृष्टि से कामगजेन्द्र और श्रेष्ठिकन्या का छुपा प्रणय छुप न सका। उसके हृदय को टीस पहुँची। वह सोचने लगी, कुछ सोचकर उसने कामगजेन्द्र से कहा, 'प्राणनाथ! मुझे कुछ बेचैनी सी महसूस हो रही है। मैं शयनगृह में जाकर विश्राम करना चाहती हूँ।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की तरफ देखा, प्रियंगुमति प्रणाम करके शयन कक्ष में चली गई। उसका मन अस्वस्थ हो चुका था। फिर भी उसने स्वस्थतापूर्वक सोचने का निर्णय किया। उसके समक्ष गंभीर समस्या उपस्थित हो गयी थी। अपने पति को अन्य स्त्री में आसक्त पाकर भला कौन औरत चिंतित नहीं होगी? 'मैं क्या करूँ? मैंने इन्हें अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है। मेरे मन में For Private And Personal Use Only
SR No.009638
Book TitleRag Virag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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