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मन की बात
२६ ___ प्रियंगुमति का कार्य बन गया। उसका मन शांत था। पलंग में गिरते ही उसे निद्रादेवी ने अपनी गोद में खींच लिया | पर कामगजेन्द्र बेचैन था । उसके लिए बड़ी उलझन पैदा हो गयी थी। वह प्रियंगुमति के दिव्य प्रेमाई व्यक्तित्व को देख रहा था। पति के सुख के लिए यह नारी अपना सर्वस्व लूटा रही है। अपनी तमाम आकांक्षाओं को कुचल रही है। इसके चेहरे पर कितनी अपूर्व प्रसन्नता छायी है! वह देखता ही रहा प्रियंगुमति के चेहरे को।
मेरे मनोभाव इसने जान लिये थे, फिर भी इसने मुझे जरा सी भी भनक नहीं आने दी कि यह मेरे मनोभाव जान चुकी है। न कोई प्रतिरोध! न कोई गुस्सा! बल्कि जिनमति के साथ शादी करवाने के लिए तैयार हो गई। यह इसकी कितनी उत्तमता है। पर मेरा कर्तव्य क्या? क्या मैं जिनमति के साथ शादी कर लूँ? यह उचित होगा? इसने तो मेरी अनुमति ले ली। हालाँकि वास्तव में तो मुझे पसन्द ही है। क्या मैं नहीं चाहता हूँ उस युवती को? मैं क्यों खींच गया उसकी तरफ? कितना वासना-विवश है मेरा मन? मैं कहाँ और यह साध्वी जैसी प्रियंगुमति कहाँ?
कामगजेन्द्र मनोमंथन में से तत्त्वचिंतन में चला जाता है। 'मेरी कैसी विकार-विवश दशा है? इन कामविकारों को मैं अच्छे नहीं' मानता। आत्मा की अघोगति के कारण हैं, ये कामविकार | फिर भी मैं इन कामविकारों में बहता चला जा रहा हूँ। समझता हूँ ये सारे कर्मजन्य भाव हैं। मेरी आत्मा तो उसके मूल स्वरूप में शुद्ध है, अधिकारी है। परन्तु वह स्वरूपरमणता आ नहीं रही। इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध बनता जा रहा हूँ, इन इन्द्रियों को चाहे जितने प्रिय विषय मिले पर ये कभी तृप्त होने की नहीं। क्या जिनमति का सहवास मिलने पर मेरी मनोवृतियाँ तृप्त हो जायेंगी? नहीं, वें तो और ज्यादा धधक उठेंगी।'
पास में सोयी हुई प्रियंगुमति ने करवट बदली। उसके मुख में से अस्पष्ट शब्द निकल रहे- "जिनु! उन्होंने मेरी बात मान ली। तू मेरी छोटी बहन... कामगजेन्द्र भीतर तक संवेदना से सिहर उठा' अरे! यह तो सपने में भी जिनमति के पास चली गई। इसके मन में जाने एक यहीं बात बसी है!'
कामगजेन्द्र ने विचारों में ही रात्रि का दूसरा प्रहर पूर्ण किया। निद्रा तो आज उसके पास ही नहीं आ रही थी। विचारों से मुक्त बनने के लिए उसने परमेष्ठि-पदों के ध्यान में अपनी चेतना को बाँधना चाहा। शयनखण्ड के दीप
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