Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योत, जो सदा जलती रहेगी ६८ जिनमति ने धड़कते हृदय से...आश्चर्य...अनुताप...कौतूहल और विरक्ति के भिन्न-भिन्न भावों के साथ कामगजेन्द्र की बातों को सुना। __'आपकी बातें अदभुत प्रतीत हो रही हैं। आपका निर्णय भी श्रेष्ठ है। त्याग का रास्ता ही आत्मा के सुखानूभव का एक मात्र सही मार्ग है।' __'जिनु, मैंने भी स्वामी का संकल्प स्वीकारा है। मैं भी उनके साथ संयम स्वीकारूँगी।' 'दीदी, आपने अपना ही निर्णय क्यों कहा? मेरा भी निर्णय आपको कहना चाहिए था?' 'चारित्र बिन मुक्ति नहीं, यह बात तो मुझे माँ ने दूध के साथ पिलायी है | जीवन का अन्तिम आदर्श संयमजीवन ही है। मैं भी चारित्र का ही मार्ग लूंगी।' जिनमति ने प्रसन्न मन से पर दृढ़ स्वर में अपना संकल्प बता दिया। प्रियंगमति उसके प्रतिभासंपन्न चेहरे की ओर देखती ही रही। जिनमति आँखें मूंदकर विचार में डूब गयी थी। कामगजेन्द्र आवासगृह के वातायन से नीलगगन में मुक्त मन से उड़ रहे पक्षियों को देख रहा था। 'जिनु!' 'दीदी!' जिनमति प्रियंगुमति के पास सरक आयी । 'संयममार्ग ग्रहण करने का निर्णय बड़ी समझदारी के साथ करना चाहिए | भावुकता के प्रवाह में बहकर नहीं। परिपक्व चिंतन और दीर्घ विचार करके ही निर्णय लेना चाहिए | संयम का मार्ग सरल नहीं है। भोग में डूबे जीवों के लिये त्याग का जीवन शायद कठिन हो सकता है।' जिनमति ने प्रियंगुमति की बात सुनी। वह मौन रही। उसकी आँखें निमिलित थीं। उसकी कल्पना-सृष्टि में संयमजीवन साकार बन गया। उसने अपने आपको साध्वी के रूप में देखा। संयम की साधना में तल्लीन बने मन को देखा । चित की अपूर्व आनन्दावस्था का अनुभव किया। हर्ष और शोक के द्वन्द्वों से मुक्त, सुख और दुःख की कल्पनाओं से मुक्त चित की समावस्था का अनुभव किया। विकाररहित आत्मा-स्थिति की अनुभूति ने उसे प्रसन्न कर दी। 'दीदी! 'जिनु! 'मेरा संकल्प सुदृढ़ है। मेरा निर्णय मेरी अन्तःप्रेरणा का है। मैं अपने आपको संयममार्ग की आराधना में लीन बना सकूँगी। 'कम्मेसूरा ते धम्मेसूरा' की बात सार्थक ही होगी न?' जिनमति की आँखें चमक उठी। प्रियंगुमति ने For Private And Personal Use Only

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