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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
श्रमण भगवान महावीर स्वामी भी अरुणाभ के बाह्य प्रदेश में पधार गये थे। भव्य दीक्षा महोत्सव का आयोजन हुआ। नगर के अनेक स्त्री-पुरुष संयममार्ग ग्रहण करने के लिए तैयार हो गये थे।
विशाल राज्यपरिवार के साथ, लाखों नागरिक स्त्री-पुरुषों के साथ, अनेक राजा-महाराजाओं के साथ कामगजेन्द्र समवसरण की ओर चला | कामगजेन्द्र, प्रियंगुमति और जिनमति राजहाथी पर आरूढ़ थे। पीछे दूसरे राजहाथी पर दिशागजेन्द्र आरूढ़ हुआ था।
समवसरण के द्वार पर सभी आ पहुँचे। कामगजेन्द्र अपनी दोनों प्रियाओं के साथ हाथी पर से उतरा और समवसरण के सोपान चढ़ने लगा। भगवंत के समक्ष जाकर प्रणाम करके तीन प्रदक्षिणा दी। फिर मस्तक पर अंजली रचाकर भगवंत को प्रार्थना की : हे त्रिभुवन गुरु ! हमें चारित्रधर्म देकर इस भवसागर से तारने की कृपा करें। हमें आपकी शरण हो ।' ___'हे राजेन्द्र, परम आनन्द पाने का यही सच्चा रास्ता है, मुक्तिसुख को पाने का यही एक सच्चा उपाय है।'
भगवन्त ने राजा, दोनों रानियों एवं अनेक स्त्री-पुरुषों को चारित्रधर्म प्रदान किया । देवों ने फूलों की वर्षा की। दिव्यध्वनि गूंज उठी। वाजित्रों के नाद हुए |
सभी लोग अपने-अपने स्थान पर लौट गये। भगवन्त भी वहाँ से अपने शिष्य-परिवार के साथ अन्यत्र विहार कर गये।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के श्रमण संघ में कामगजेन्द्र का प्रवेश हो गया था। प्रियंगुमति और जिनमति का परमात्मा के आर्यासंघ में प्रवेश हो गया था। सभी आत्मभाव की विशुद्धि करते हुए, प्रशमभाव में निमग्न बनते हुए मोक्षमार्ग की आराधना में प्रगति कर रहे थे।
परद्रव्यों से निःसंग बनकर, स्वदेह से विरक्त बनकर कामगजेन्द्र मुनि ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या करते हुए आत्मभाव में रम रहे थे। न थी किसी परभाव की अभिलाषा। ___ महामुनि ने मन के कामविकारों पर विजय पा लिया। अभिमान की आग को नम्रता के नीर से बुझा दिया। __विषय और कषाय से मुक्त बनकर जीवनमुक्त बनने की दिशा में प्रयाण किया।
एक दिन उन्हें अन्तःस्फुरणा हुई : मेरा आयुष्य अल्प है, उन्होनें भगवंत की
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