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दीदी
१८ 'मेरी जिनु कितनी पुण्यशाली है! जिनमति को अपने पास खींचकर अपने सीने से लगा ली। वह जिनु की नीलम सी चमकती आँखों में झाँकने लगी। ___ कल्याणी जा चूकी थी। खंड में मात्र दो सहेलियाँ ही रह गई थी। एक चुप्पी सी छा गई थी। 'जिनु, एक प्रश्न पूछू?' ‘एक नहीं अनेक, दीदी! लगता है तुम मुझे पूछती ही चलो, मैं तुम्हें जवाब देती ही रहूँ। तुम्हारी घंटियों सी आवाज मेरे मनोमंदिर में सदा के लिए गूंजती रहे। दीदी, मेरी प्यारी दीदी, मुझे तुम... और जिनमति ने अपना चेहरा प्रियंगुमति'के उत्संग में छिपा दिया।
'जिनु!' प्रियंगु ने उसके चेहरे को ऊपर उठाते हुए, उसकी आँखों में झाँका | "जिनु, तूने धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया है न?' 'हाँ दीदी, ज्यादा तो नहीं पर थोड़े बहुत ग्रन्थों का अध्ययन किया है।' ‘पर तूने अध्ययन किया तो है न?' 'हाँ मेरी माता के आग्रह से।' 'तेरी माँ बहुत धर्मशीला हैं। नहीं?'
'बहुत धार्मिक विचार-व्यवहार वाली है माँ, पर इतनी ही प्रेमभरी और वात्सल्य के वारिधि सी है मेरी माँ! हाँ, पर दीदी आप क्या पूछ रही थी?'
'ये फिर आप... आप...' 'अच्छा दीदी, अब नहीं... भूल हो गई। 'जिनु, क्या एक पुरुष दो पत्नी नहीं कर सकता है? और करे तो क्या धर्मविरुद्ध होगा? वह?' प्रियंगु ने अपने मन में दबे प्रश्न को आखिर प्रगट कर दिया। ___ 'जिनमति पहले तो चौक उठी, पर तुरन्त सहज बनकर जवाब दिया : दीदी, क्या भगवान ऋषभदेव को दो पत्नियाँ नहीं थी? चरमशरीरी भरत चक्रवर्ती को क्या हजारों रानियाँ नहीं थी? तो क्या वे महापुरुष धर्मविरुद्ध आचरण करने वाले थे?'
'देख जिनु, तीर्थंकर और चक्रवर्तियों की बात अलग है। तीर्थंकरों ने जो किया वह अपन नहीं कर सकते, पर उन्होंने जो कहा है वैसे करने का है।'
'अच्छा, चलो जाने दो इस बात को | पर तीर्थकरों ने मना थोड़ी ही की है
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