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योगी या भोगी है। ऐसा अनुभव था, अमृत का अनुभव ।'
'फिर आपने वह अनुभव दीदी को सुनाया था?' जिनमति हँस पड़ी। कामगजेन्द्र के होठों पर भी हास्य फैल गया। 'हाँ, कहा था। उसे कहने में एक और रात का जागरण हो गया! 'महादेवी को आपके अनुभव की बातें पसन्द आयी?' 'उसे मेरी सारी बातें पसन्द आती है। राग की बात करूँ तो भी और विराग की बात करूँ तो भी।' __'चूंकि आप ही उन्हें पसन्द आ गये हो ना! जिनमति की खिलखिलाहट ने वातावरण को रस दिया। उसके हास्य ने कामगजेन्द्र को सूक्ष्म भूमिका के चिंतन में से स्थूल भूमिका पर लाना चाहा पर कामगजेन्द्र ने फिर चिंतन की गहरी झील में डुबकी लगा ली। ___'पसन्द आना यह राग है और पसन्द न आना यह द्वेष है। राग और द्वेष में आत्मा झूल रही है, लगता है ये राग और द्वेष ही सारे दुःखों की जड़ है।'
'परन्तु प्रिय, स्त्री के प्रति पति का राग तो सुख का मूल है ना?'
'कौन सा सुख जिनु? इन्द्रियों के इष्ट विषयों की प्राप्ति के सुख ही ना? वे सुख कहाँ हैं? वे तो मात्र सुखाभास हैं | जो दुःखों को संग लाये उसे सुख कैसे कहना? विषयोपभोग का परिणाम तो आखिर दुर्गति के दीर्घकालीन दुःख ही है ना?
‘पर इतना जानने पर भी राग तो हो ही जाता है।'
'हो सकता है, पर इतनी जागृति रहनी चाहिए- "मैं राग कर रहा हूँ, यह मेरी आत्मा के लिए अहितकर है, यह बात याद रहनी चाहिए।'
"ऐसा कहाँ याद रहता है? इष्ट विषयों में मन दौड़ ही जाता है।' ___ 'कहाँ तक दौड़ेगा? कितना दौड़ेगा? कभी तो थकेगा ही न? जब वह खड़ा रहेगा उस समय तो आत्मा याद आयेगी न?
'हाँ तब तो आयेगी! जिनमति का हृदय आनन्द से भर गया। उसे लगा कामगजेन्द्र बाहर से चाहे भोगी हो पर भीतर से तो उसकी अन्तरात्मा योगी है। उसका हृदय वैरागी है। सन्तहृदय का कंत उसे बड़ा प्यारा लगा। ___ कामगजेन्द्र मौन के महासागर में गोते लगाने लगा। नयन मूंदकर वो किसी अज्ञात, अगोचर प्रदेश की यात्रा पर पहुँच गया। समीप में रखे हुए
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