Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुभूत आश्चर्य ५० ___ ‘पर यह गुप्त बात भी तो एक स्त्री की ही है ना? और प्रियंगुमति का व्यक्तित्व हजारों में एक है। हर एक बात में अपवाद तो रहता ही है। नीतिशास्त्र के सारे नियम सभी जगह पर मान्य नहीं होते। प्रियंगुमति मेरी पत्नी ही नहीं, बल्कि एक अच्छी मित्र भी है। मेरा कुछ भी उससे छिपा नहीं है।' ___ 'पर आपका यह विश्वास ज्यादा नहीं है?' पवनवेगा ने स्त्रीसहज कोतुहल से पूछ लिया। 'नहीं जरा भी नहीं... वह तो मेरी दूसरी आत्मा है।' 'तो जैसी आपकी इच्छा- आप कह सकते हैं।' दोनों ने सहमति दे दी। कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति को जगाया! वह एकदम खड़ी हो गयी। अपने आवास में दिव्य कान्ति वाली दो स्त्रियों को देखकर स्तब्ध रह गयी। कामगजेन्द्र ने उसे सारी बात संक्षेप में कह दी और कहा : ___ 'देवी, मैं अभी इन विद्याधर कन्याओं के साथ जा रहा हूँ और जल्द ही वापस लौटूंगा!' 'जैसी आपकी इच्छा | आपकी इच्छा को भला मैं कैसे रोकूँ? पर इन दोनों कन्याओं से विनती करूँगी कि मेरी यह धरोहर मुझे वापस लौटा देना।' दोनों ने प्रियंगुमति की बात को स्वीकार किया। प्रियंगुमति अस्वस्थ बन गई। उद्विग्नता उसके चेहरे पर छा गयी।' क्या यह ऐन्द्रजालिक माया है? स्वप्न है? किससे बात करूँ? कहाँ जाऊँ? जिनमति भी साथ नहीं है! क्या सच वे दोनों देवियाँ होंगी? क्या मायावी छलना का शिकार तो नहीं बन गयी कहीं मैं! क्या मेरे प्राणप्रिय वापस लौट सकेंगे? ओफ्फोह, मैंने क्यों उन्हें अकेले जाने दिया! मैं भी साथ चली जाती... वह अपने आपको न सम्भाल सकी पलंग पर औंधी गिरती हुई वह सिसकियाँ भरने लगी : उसका रोयाँ-रोयाँ अनन्त अनुताप से भर आया। उसके आँसू बहते ही चले। पर कोई नहीं था वहाँ, उसकी पलकों के मोतियों को बहने से रोकने वाला! अन्ततः कामगजेन्द्र के कुशल की कामना करती हुई वह परमात्मा के ध्यान में लीन बनने का प्रयत्न करने लगी। For Private And Personal Use Only

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