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मैं धन्य बना!
१०. मैं धन्य बना!
देवी, मृत कुमारिकाओं को जलांजलि देने के लिये मैं उस कुंड में उतरा। मैंने अपने कपड़े उतारकर किनारे पर रख दिये थे। मैंने कुंड में गहरे डूबकी लगायी...मेरी आँखें बंद थी..
यकायक जब मेरी आँखें खुली तो मैं कुंड के बाहर आ चुका था... कुंड के बाहर आकर मैंने अपने कपड़े पहन लिये।
कुंड के किनारे पर खड़ा-खड़ा मैं उसकी स्फटिक रत्नों से निमित दीवार को देख रहा था... स्वच्छ बिलोरी रंग के उसके पानी को देख रहा था कि अचानक एक चमत्कार हुआ... वह कुंड एक दिव्य विमान में बदल गया... मैं उस विमान में आरूढ़ होकर दूर-दूर तक उड़ता रहा...आखिर एक नयी धरती पर वह विमान उतरा...मैं भी विमान से नीचे उतर कर आश्चर्य एवं मुग्धता के भावों में घिरा हुआ इधर-उधर देखने लगा तो मुझे वह दुनिया ही कुछ अजीब सी लगी!
सुन्दर विशाल हरी-भरी पृथ्वी! गगन को छूने वाले दीर्घ-सुदीर्घ वृक्षसमूह! खजूरी के पेड़ से भी बड़े-बड़े जानवर! बड़े ऊँचे-ऊँचे आदमी... मैं तो उन सबके आगे चिड़िया के बच्चे सा लग रहा था... अरे... क्या यह देवलोक है? क्या यह विद्याधरों की दुनिया है? नहीं-नहीं, मैं सोचने लगा...ओह, यह तो महाविदेह का इलाका लग रहा है...चूँकि मैंने महाविदेह के बारे काफी बातें सुन रखी थी, तो वहाँ का वातावरण हूबहू वैसा ही लग रहा था। ___ कैसे बड़े-बड़े आदमी... जानवर! हजार हाथ से भी ऊँचे पेड़...वृक्ष...और न जाने क्या-क्या? ___ मैं सोच रहा था...किसे जाकर पूछू : 'यह धरती कौन सी है? यह सब क्या चमत्कार है?' सोचते-सोचते मैं आगे बढ़ने लगा...
स्वर्ग जैसे नगर...नंदनवन से बगीचे...सौन्दर्य के सरोवर से युवक...अप्सरा भी शरमा जाये वैसी युवतियाँ...वैभव कला और कारीगरी के उत्तम नमूनों से मकान...महल! मुझे अपनी दुनिया तो इन सबके सामने तुच्छ सी लगी...बेजान सी लगी...।।
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