Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 69
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सही दिशा की ओर www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१ ११. सही दिशा की ओर कामगजेन्द्र की बात सुनकर प्रियंगुमति विचारों की गहराई में डूब गई। उसके चेहरे पर ग्लानि और आश्चर्य की मिश्रित रेखाएँ उभर आई। उसने कामगजेन्द्र की ओर देखा ... कामगजेन्द्र आँखें मूँदकर पलंग पर लेटा था । प्रियंगुमति के मन में अनेक विचारों के आवर्त फैलने लगे। क्या ये सारी बातें सही होंगी? उनके जाने और लौटने में मात्र एक प्रहर का समय बीता है। एक प्रहर में क्या इतनी घटनाएँ हो सकती है ? इतनी सारी घटनाओं में तो तीनचार प्रहर निकल जाना आसान है । तो क्या यह इन्द्रजाल है ? स्वप्नलीला है ? प्रियंगुमति का मन भारी भारी हो गया। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ फैलती देखकर कामगजेन्द्र ने उठकर अपने हाथों में उसकी हथेलियों को बाँधते हुए कहा : ‘देवी! अभी भी मेरे मनोपट पर हूबहू सीमंधर स्वामी की आकृति उभर रही है। जैसे कि मैं उनके चरणों में नतमस्तक खड़ा हूँ और उनके करुणापूर्ण नयनों से करुणा बरस रही हो ! सच, यह दृश्य मुझे अभी-अभी दिखाई दिया ।' ' पर मुझे तो यह सब समझ में नहीं आता। एक प्रहर के अल्प समय में आपकी कही हुई सारी घटनाएँ हो कैसे सकती है? आप जब से गये तब से मैं जाग रही हूँ। एक प्रहर भी मुश्किल से बीता है। क्या यह स्वप्न या इन्द्रजाल नहीं हो सकता ?' 'देवी, मैंने जो कुछ भी कहा वह सब मेरा अपना अनुभूत सत्य है, अतः स्वप्न या इन्द्रजाल का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अलबत्त, मेरे ये सारे अनुभव दैवी दुनिया के हैं, मुझे यहाँ से ले जाने वाले मेरे पूर्वजन्म के मित्रदेव हैं। मुझे वापस लौटाने वाले भी वही हैं। इसलिए जाने-आने में तो ज्यादा समय गया ही नहीं। वैताढ्य पर्वत की गुफा में कुण्ड में भी और फिर महाविदेह क्षेत्र में एक प्रहर बीत जाना स्वाभाविक है । पर देवी, सच कहूँ तो वह सब देशकाल के बंधनों से परे था । अपूर्व और अद्भुत था ।' For Private And Personal Use Only कामगजेन्द्र के चेहरे पर एक दिव्य आभा दमक उठी। उसके कमल से अर्धनिमीलित नयनों में दिव्य अनुभूति की संवेदना नृत्य करने लगी । परमात्मा सीमंधर स्वामी के मुखारविन्द से उसने 'बिन्दुमति' और उसकी दोनों विद्याधर

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