Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उज्जयिनी की राजकुमारी ४४ 'जिनु, तुझे तो मालूम है ना! उन्हें मुझ पर कितना एतबार है ? वे अपने मन की कोई भी बात मुझ से छुपाते नहीं है । जो उनकी इच्छा वही मेरी इच्छा ! उनकी प्रसन्नता, उनकी खुशी से बढ़कर अपने लिये और क्या है जिनु ? उनके प्राण जैसे पुलकित बने, उनकी आत्मा को जैसे प्रसन्नता मिले, उसमें ही अपना सब कुछ है! मैंने उनसे केवल प्यार किया है जिनु ! और प्रेम हमेशा समर्पण करता है। आदान की अभ्यर्थना वहाँ होती ही नहीं । मेरी और कोई कामना नहीं है। मैं तो अपने अस्तित्व के अन्तिम अंश तक उन्हें समर्पित हूँ !' प्रियंगुमति अपने अस्तित्व के साथ सौन्दर्यमुग्ध कल्पनालोक में बही जा रही थी । 'दीदी, सच तुम्हारा प्यार अद्भुत है।' उसके पलकों के किनारे चूने लगे। उसका दिल भर आया । वो ज्यादा कुछ भी न बोल सकी! दोनों रानियाँ कामगजेन्द्र के आवास में से निकल कर भोजनगृह में पहुँच गयी। इधर कामगजेन्द्र अतिथिगृह में पहुँच गया था । चित्रकार स्नान - भोजन वगैरह से निवृत होकर अलसा रहा था कि युवराज ने आकर उसे उठाया । 'देखो भैया, तुमने जैसा इस राजकुमारी का चित्र बनाया है, वैसा ही मेरा चित्र बना दो, चित्र लेकर तुम्हें उज्जयिनी जाना होगा और वह चित्र राजकुमारी को दिखलाना होगा, समझे?' 'अवश्य कुमार, आपका चित्र मैं यहीं बनाकर आपको बता दूँगा । आपको पसन्द आने पर ही मैं उसे लेकर उज्जयिनी जाऊँगा, परन्तु...' 'परन्तु क्या...? मैं तुम्हारी अच्छी कद्रदानी करूँगा, चिन्ता मत करो।' 'युवराज, ऐसी कोई बात नहीं है, मैं तो और ही बात कहना चाहता हूँ...' 'क्या ? कह दो...' ‘उज्जयिनी की राजकुमारी पुरुषद्वेषिणी है। वह किसी पुरुष को देखना भी नहीं चाहती है। इसलिए...' ‘उसकी चिन्ता मत करो चित्रकार । तुम मेरा चित्र उसे बताना तो सही, उसका सारा द्वेष पानी-पानी हो जायेगा ।' कामगजेन्द्र के शब्दों में अनूठा आत्मविश्वास टपक रहा था। ‘जैसी आपकी आज्ञा । आज ही मैं आपका चित्र बनाना प्रारम्भ कर देता For Private And Personal Use Only

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