Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38 योगी या भोगी 'अपन कभी सम्मेतशिखर जायेंगे, तुझे यात्रा पसन्द है ना?' 'बहुत! परमात्मभक्ति तो मेरे जीवन का परम धन है! जिनमति की आँखें छलक आयी। उसने अपने आँचल से आँसू पोंछे। उसका हृदय प्यार से छलक रहा था। 'नाथ, आपको पाकर मैं धन्य बन गई हूँ...मुझे लगता है मैं कितनी सुखी हूँ! मुझे कोई आंतर-बाह्य दुःख नहीं है।' __ कामगजेन्द्र ने जिनमति के सामने देखा। फिर वातायन से बाहर की ओर नजर डाली | नील गगन की गोद में टिमटिमाते तारों के बीच चाँदनी बरसाता चाँद । अत्यंत आल्हादक वातावरण छाया हुआ था। 'समय काफी बीत गया है।' 'चाहे पूरा जीवन ही ऐसे बीत जाये।' 'वह इस संसार में शक्य नहीं है जिनु, ऐसा एक सा...अनंतकालीन एक सा आनन्दपूर्ण जीवन तो है उस सिद्धशिला पर | शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा का स्वतंत्र जीवन | जन्म और मृत्यु से | मुक्त अक्षय और अनन्त जीवन। निर्द्वद्व और निरावध जीवन।' 'नाथ, आप तो उस सिद्धशिला पर जा बसेंगे थोड़े ही भवों में! पर, क्या आप मुझे इस संसार में ऐसे ही छोड़कर चले जायेंगे?' जिनमति कामगजेन्द्र के ज्यादा निकट आ गयी और कामगजेन्द्र की आँखों में झाँकती हुई बोली । ___ 'कौन किसको ले जायेगा जिनु? किसको मालूम है वे अज्ञात काल की रेखाएँ? 'हाँ, वहाँ अपनी आत्मज्योति परस्पर मिल जायेंगी। अपना वह मिलन शाश्वत होगा । आत्मा से आत्मा का मिलन ।' बुझते दिये की लौ को तेज करने के लिए कल्याणी ने खण्ड में प्रवेश किया। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82