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मन की बात प्रति गहरा अनुराग है। जबसे मैंने उसे महल के सामने के झरोखे में देखा है तब से वह मेरे मन-मस्तिष्क पर छा चुकी है। उसने मेरे दिलो-दिमाग पर अधिकार जमा लिया है। पर... _ 'पर कुछ नहीं। आप मेरा विचार कर रहे हो ना? मत करो। जिनमति संसार की साधारण स्त्रियों जैसी नहीं है। उसमें असाधारण गुण है। वह अपने बीच कभी दीवार बनेगी ही नहीं। वह मुझे आपसे अलग करेगी ही नहीं। वह स्वार्थी, अभिमानी या डाहवाली नहीं है। आप विश्वास रखिये।' __ महल की मुँडेर पर रत्नों के दिये झगमगा रहे थे। रात का प्रथम प्रहर बीत रहा था । युवराज एवं युवराज्ञी वार्तालाप में खो गये थे। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति के आंतर-व्यक्तित्व में खोया जा रहा था। प्रियंगुमति की उदारता, गम्भीरता और समर्पण की उच्चतम भूमिका देखकर उसका हृदय स्नेह से छलछला उठा। _ 'खैर, मानलिया, जिनमति सुयोग्य कन्या है। वह स्वार्थी नहीं, कबूल है पर मैं खुद ही उसमें खो गया तो? और फिर तुझे भुला दिया तो? पुरुष के भ्रमर से मन को तुम जानती हो ना?' ___ 'ओफ्फोह! कैसी बातें कर रहे हो आप? आप मुझे कभी भुला ही नहीं सकते। मुझे विश्वास है। और कभी आप जिनमति में खो भी जायेंगे तो खो जाना, जिनमति में भी आप प्रियंगुमति को पायेंगे!' 'परन्तु इससे तुझे क्या सुख मिलेगा?' 'आपका सुख वही मेरा सुख । आपको सुखी और प्रसन्न देखकर मैं भी सुखानुभव करूँगी। दैहिक सुख से भी मानसिक सुखानुभूति ज्यादा प्रसन्नतादायी बनती है।'
'क्या तुम मुझे पराजित करोगी?'
'जब आपने मेरे तन-मन...अरे समग्र जीवन को ही जीत लिया है, फिर भला आपकी हार कैसे? मेरी जीत वह आपकी ही जीत है ना? क्या अपन अलग हैं? आप और मेरे बीच में भेद हो तो बात है ना?'
कामगजेन्द्र भावविभोर हो गया। उसने प्रियंगुमति को स्नेहपाश में जकड़ लिया। प्रियंगुमति के चेहरे पर प्रसन्नता के गुल खिल उठे।
द्वारपाल ने प्रथम प्रहर पूर्ण होने की सूचना दी। प्रियंगुमति और कामगजेन्द्र झरोखे में से महल के भीतर आ गये और शयनखण्ड में चले गये।
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