Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो देह एक प्राण ३१ लावण्य हमेशा पुरुष को आकर्षित नहीं करता। स्त्री का स्थायी आकर्षण उसमें रहे हुए उच्च कोटि के गुण बनते हैं। प्रियंगुमति में रहे हुए ऐसे गुणों ने कामगजेन्द्र को प्रियंगुमति की ओर सतत आकर्षित रखा है। प्रियंगुमति मात्र पत्नी नहीं है। कभी मित्र तो कभी दासी भी बन जाती है। विरक्त हृदय भी ऐसे व्यक्तित्व पर अनुरागी बन जाता है। विरक्त में भी गुणराग तो छिपा हुआ होता ही है। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति को मात्र अपने भोग-विलास के साधनरूप में नहीं देखता है और भी बहुत सी अद्भुत बातें तथा अद्वितीय गुण उसने पाये है इस सन्नारी में। ___ 'प्रियंग, तेरी आत्मा सच ही महान् है।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति पर अपनी आँखें स्थापित की। प्रियंगुमति की पलकें ढल गई। ___ 'यह मैं तेरी प्रशंसा करने के लिये या तुझे प्रसन्न करने के लिए नहीं कहता। मेरे हृदय में जो भाव पैदा होते हैं, मुझे जो लगता है, वही कहता हूँ। कभी-कभी तो तेरी महानता के आगे मैं अपने आपको बौना पाता हूँ।' _ 'नहीं ऐसा मत कहिए, आप महान् हैं इसलिए आपकी दृष्टि में महानता है और मैं आपको महान लगती हूँ। 'तू ऐसा ही कहेगी, तू हमेशा विनम्र रही है, फलों के भार से झुकी डालियों की भाँति तू गुणों के भार से झुकी हुई रही है | मैंने कभी तेरे में अभिमान नहीं पाया। सच, मेरा मन तुम पर मुग्ध हो जाता है। मैं चाहता हूँ आज तू मुझसे कुछ माँग ले। तू जो माँगेगी, मैं दूंगा। दिये बिना मुझे चैन नहीं पड़ेगा।' ___ 'आप ही मेरे हो, फिर भला मैं क्या माँगूं? जो आपका है वह सब मेरा ही है ना! आपसे अलग मेरा क्या है?' ___ 'नहीं, फिर भी कुछ तो माँगना ही होगा।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के हाथों को अपनी हथेलियों में बाँध लिया । प्रियंगुमति को एक विचार आ गया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता दमक उठी। उसने कहा- "अच्छा, एक वचन माँगती हूँ।' 'अवश्य, बोल। 'आप जो कुछ नया देखो, नयी बातें सोचों या नया कार्य करो तो मुझे उससे अनजान नहीं रखना। हाँ, सपनों से भी अनजान मत रखना।' 'तथास्तु! तेरा वचन मंजूर! For Private And Personal Use Only

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