Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ दीदी वह अपने पति को स्वैर विहारी बना देखना नहीं चाहती थी। वह अपने पति को उन्मार्गगामी बनाना नहीं चाहती थी। प्रियंगुमति कामगजेन्द्र को पूरी तरह समझ पायी थी। कामगजेन्द्र की चढ़ती जवानी थी। वह राजकुमार था। उसके पास यौवन था। वैभव था। इतना ही नहीं, उसमें कई विशेष गुण भी थे। एक पत्नी अपने पति से जो चाहना रखे वह सब पूरी करने की उसकी क्षमता थी। जैसे उसने अपने पति को पहचाना था वैसे उसने जिनमति का भी अच्छी तरह अध्ययन किया था। उसकी समझशक्ति ने, उसकी चंचलता ने, प्रेमार्द्रता ने, उसके भावुकता भरे व्यवहार ने प्रियंगुमति को काफी प्रभावित कर दिया था। __ प्रियंगुमति का हृदय जिनमति की तरफ इस कदर खींच गया था कि जिनमति को हमेशा के लिए अपने पास रखने के सपने वह देखने लगी। उसने यह भी महसूस किया कि जिनमति मन ही मन कामगजेन्द्र को अपना सर्वस्व समझ बैठी है! राज्य के महत्त्वपूर्ण कार्य से कामगजेन्द्र को तीन दिन के लिए दूर के गाँव जाना पड़ा। प्रियंगुमति की प्रेमभरी कामनाओं को लेकर कामगजेन्द्र चला गया। प्रियंगुमति अपने शयनखंड में कल्याणी के साथ बातें करती बैठी थी। इतने में जिनमति ने प्रवेश किया। प्रियंगुमति की आँखें चमक उठी। ___ 'आ, जिनु! कितनी लम्बी आयु लेकर आई है तू? मैं अभी तेरी ही बातें कर रही थी कल्याणी के साथ! मैं सोच ही रही थी कि आज का पूरा दिन कैसे बितेगा? अच्छा हुआ तू आ गयी।' जिनमति को अपने पास बिठाकर उसके मस्तिष्क को अपने सीने से लगाते हुए प्रियंगुमति जिनमति के सर को सहलाने लगी। 'दीदी, सच कहूँ? मुझे तो यह महल, मेरी दीदी और...यह सब बड़ा प्यारा लगता है।' जिनमति की आँखों में पारदर्शिनी सरलता झलकने लगी। यह सब तेरा ही तो है जिनु, और तेरी दीदी भी तो तेरी हो चुकी है।' प्रियंगुमति के चेहरे पर मुस्कराहट छा गयी। जिनमति की आँखें छलछला सी गयी। ___'दीदी, ऐसे कहीं अपना मानने से थोड़े कोई अपना हो जाता है? अपना मनचाहा तभी तो मिलता है जब पुण्य की पराकाष्ठा हो' जिनमति के स्वर में दर्द की टीसें उभर आई। For Private And Personal Use Only

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