Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीदी १५ 'अच्छा बाबा, अब से नहीं कहूँगी बस? हाँ, देखो मैंने तुम्हारे लिए एक बड़ा प्यारा नाम खोज रखा है, बताऊँ क्या है वह नाम? कह दूँ? तुम्हे पसन्द आयेगा? 'कहिए ना?' जिनमति भावविभोर हो उठी। 'देखो, मैं तो तुम्हें 'जिनु' कहूँगी और मेरी छोटी बहन मानूंगी तुम्हें, बोलो, कबूल है ना? 'दीदी' बोलती हुई जिनमति की आँखों में स्नेह हिलोर लेने लगा। ___ 'आह आज मैं कितनी खुश हूँ! मुझे मेरी छोटी बहन मिली। मुझे कोई 'दीदी' कहकर पुकारने वाला मिला। मेरी जिनु!' प्रियंगुमति ने उसे, अपने पास खींच लिया और अपने अंकों में भर लिया। जिनमति का रोम-रोम पुलकित बन रहा था। प्रियंगुमति के श्वासों की सघनता उसके मन मस्तिष्क को आनन्द की अनुभूति से भर रही थी। फिर तो दोनों बातें करती ही चली... आत्मीयता के आलोक में दोनों एक दूसरे के अंतस्तल की गहराइयों को छूने लगी। एक प्रहर बीत गया। जिनमति ने विदा माँगी। 'दीदी, मैं जाऊँ अब? माँ राह देख रही होगी।' "कल आओगी ना, जिनु?' 'प्रयत्न करूँगी दीदी। 'नहीं जिनु आना ही होगा। मुझे कितनी प्रसन्नता मिली तुमसे मिलने में । जिनु, सच मैं तुझे बहुत चाहती हूँ, मेरे हृदय में अपने लिए कितनी जगह कर ली तूने?' 'अच्छा दीदी, अवश्य आऊँगी। कहकर जिनमति लौट आई अपने घर | दिन बीतते हैं। प्रियंगुमति और जिनमति के बीच आत्मीयता की अनुभूति गाढ़ बनती चली, बढ़ती चली। वर्षों की स्नेहलता मानों मूर्त हो उठी। प्रियंगुमति जिनमति को अपने मनोभाव की जरा भी गंध नहीं आने देती है। कामगजेन्द्र भी स्वयं का मनोमंथन प्रियंगुमति से छिपाने का निष्फल प्रयास कर रहा था। जिनमति तो मुक्तमन से प्रियंगुमति के पास आती है। हँसी के फव्वारे और खिलखिलाहट के बीच दोनों एक दूसरे में ऐक्य की अनुभूति पाते हैं। कामगजेन्द्र भी छिपी नजरों से जिनमति को देख लेता है पर प्रियंगुमति को किसी भी तरह की शंका न हो इसकी पूरी सावधानी रखता है। कामगजेन्द्र सोच रहा था- 'पत्नी प्रेयसी को कबूल नही करती।' वह मन For Private And Personal Use Only

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