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जिनमति नहीं, ऐसा नहीं... उसका हृदय दहक उठा। वह झरोखे में से दौड़कर अपने कमरे में चली आयी।
सूरज अपनी किरणों का जाल समेटता हुआ पश्चिम की तरफ ढल रहा था। जिनमति की प्रतिज्ञा थी सायंकालीन भोजन से पूर्व सामायिक व्रत करने की। शुद्ध वस्त्र पहनकर स्वच्छ आसन बिछाकर उसने सामायिक व्रत धारण किया। दो घटिका के इस व्रत में जिनमति कभी नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करती। कभी आत्मशांति के मार्गदर्शक धर्मग्रन्थों का अध्ययन-परिशीलन करती। समत्व की साधना का यह व्रत उसे बहुत प्रिय था। भयंकर गर्मी से व्याकुल मनुष्य शीतल जल के झरने में स्नान करे और उसे जैसी स्फूर्ति और प्रसन्नता मिले वैसी स्फूर्ति और प्रसन्नता जिनमति को सामयिक व्रत में मिलती थी।
जिनमति ने सामयिक लेकर श्री नमस्कार महामन्त्र के ध्यान में अपने मन को केन्द्रित करने का प्रयास किया, पर उसे सफलता नहीं मिली। बार-बार प्रयत्न करने पर भी उसे निष्फलता ही मिली। उसका मन कभी कामगजेन्द्र के तो कभी प्रियंगुमति के, कभी कल्याणी के विचारों में उलझ जाता है। वह नहीं चाहती कि सामायिक में उसका मन कहीं इधर-उधर भटके, पर अपने मन पर उसका नियंत्रण नहीं रहा। उसने धर्मग्रन्थ को पढ़ना प्रारम्भ किया। जीवन को उदात्त एवं उन्नत बनानेवाले धर्मग्रन्थ में उसका मन रम गया और मन को आराम भी मिल गया। ___ भारी मन को हल्का करना बहुत जरूरी है। मन को हल्का करने के सात्विक उपाय हैं, पर सत्वगुणी व्यक्ति ही उन उपायों को पसंद करता है। रजोगुणी एवं तमोगुणी मनुष्य तो निम्नस्तरीय उपायों के द्वारा मन को हल्का करने का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में उससे मन हल्का होता ही नहीं। शांति का आभास मात्र होता है। जबकि मन का भार बढ़ता ही चला जाता है। सामयिक पूर्ण करके जिनमति रसोईगृह में जा पहुँची। यशोदत्ता, उसकी माँ, वहीं पर थी। यशोदत्ता अपनी दृष्टितले ही भोजन तैयार करवाती और अपने परिवार को स्वयं ही परोसती | यशोवर्म सेठ के परिवार में रात को खाना नहीं खाया जाता था। सूर्यास्त से पूर्व सभी भोजन कर लिया करते थे। जिनमति अपनी माँ के कार्य में हमेशा सहयोगी बनती। हालाँकि यशोदत्ता जिनमति से कार्य करवाना चाहती ही नहीं थी पर जिनमति हमेंशा अपनी माँ के कार्यभार को कम करने का प्रयत्न करती।
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