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जिनमति
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लिए छटपटाने लगी।' युवराज्ञी को क्या लेना-देना एक श्रेष्ठिकन्या से? उसे क्यों इतनी गहरी अभिरुचि है जिनमति के बारे में?' कल्याणी के लिए यह एक बड़ी समस्या बन गई । पर उसने अपने मन को समझा लिया, 'आज नहीं तो कल, भेद तो खुलेगा ही । '
कल्याणी ने जिनमति से अच्छा परिचय कर लिया। क्योंकि जिनमति भी तो ऐसा ही चाहती थी। वह भी तो कामगजेन्द्र का नैकट्य प्राप्त करने के लिए तरस रही थी। उसे तो कल्याणी का सहवास बहुत भा गया ।
मानव मन का यह एक स्वभाव है । अपनी प्रबल चाहना को, अपनी तीव्र कामना को जहाँ पूरी होते देखता है, उसमें जो-जो पूरक माध्यम होते हैं, उनके प्रति उसका मन कोमल और स्नेहार्द्र बना रहता है । कल्याणी माध्यम बन रही थी। कामगजेन्द्र के साथ जिनमति के मिलन में । जिनमति की नजरों में कल्याणी की बड़ी उपयोगिता थी।
कल्याणी ने प्रियंगुमति के बारे में अच्छी-अच्छी प्रशंसा - पूर्ण बाते करके जिनमति को प्रियंगुमति की तरफ आकर्षित बना डाली थी। वैसे जिनमति ने प्रियंगुमति को झरोखे में से कई बार देखा था । उसका बाह्य सौन्दर्य तो उसे आकर्षक लगा ही था पर जब कल्याणी ने प्रियंगुमति के आंतर- सौन्दर्य की पहचान दी तो वह और ज्यादा खींच गयी युवराज्ञी की तरफ । उसका सरल हृदय प्रसन्नता अनुभव करने लगा। पर गहरे में उसके मन में एक कसक बारबार उठती रही- ‘ऐसी सुन्दर और स्नेहल पत्नी को पाकर क्या कामगजेन्द्र मुझे चाहेंगे? मुझे स्वीकार करेंगे?'
भय! कल्पना का भय! मानव के दिमाग में ऐसे असंख्य भय भरे पड़े हैं । घटनाओं की ओट में भय व्यक्त होकर जीवात्मा को बेचैनीभरी उलझन का शिकार बना देता है । जिनमति पलभर के लिये बड़ी मायूस बन गई पर कल्याणी की रसपूर्ण बातों ने उसकी मायूसी के मुखौटे को उतार फेंका।
जिनमति का हृदय बड़ा सरल था । भावुक था । कल्याणी की तरफ वह खींचती ही चली। उसके चित में प्रियंगुमति से प्रत्यक्ष मिलने की प्रबल चाहना पैदा हो चुकी थी। दूसरी ओर उसे कामगजेन्द्र की निकटता प्राप्त करने की आतुरता भी बनी रहती थीं।
एक दिन कल्याणी ने जिनमति से पूछा : 'जिनमति, क्या तू राजकुमार के महल में नहीं चलेगी कभी? युवराज्ञी तुझसे मिलना चाहती हैं।'
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