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4. तहिं हउं पलय दवग्गि कल्लए वणे लग्गेसमि । (62.11 प.च.)
--कल मैं उस वन में प्रलय की आग लगा दूंगा। 5 सा परए घिवेसइ कहो वि माल (7.1 प.च.)
-वह कल किसको माला पहनायेगी ? 6. अज्ज वि कुम्भयण्णु णइ प्रावइ । (67.8 प.च.)
-आज तक कुम्भकर्ण नहीं आया । 7. जाणइ दिदु देव जीवन्ती । अणुदिण तुम्हह णामु ल यन्ती । (55.9 प.च )
-हे देव ! जानकी जीती हुई और प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेती हुई देखी
गई है। 8. रत्तिन्दिउ लङ्काउरि-पएसु । जगडइ वइसवणहो तणउ देसु । (10.7 प.च )
-रात-दिन लंकापुरी देश (और) वैश्रवण का देश झगड़ता है । 9. दिवे-दिवे छिन्देवउ पाउ-तरु । (50.6 प.च.)
-आयुरूपी वृक्ष प्रतिदिन छेदा जाएगा। 10. चिन्तेव्वउ जीवें रत्ति-दिण । भवे भवे महु सामिउ परम-जिणु ।
(54.16 प च.) -- जीव द्वारा रात-दिन (यह) विचारा जाना चाहिए (कि) भव भव में मेरे
स्वामी परम जिन हों। 11. मह पुणु चंगउ अवसरु वट्टइ । जो किर अज्जु कल्ले अभिट्टइ ।(53.2 प.च.)
-फिर मेरे लिए अच्छा अवसर है । जो निश्चय ही आज-कल में युद्ध
करूँगा । 12. अवसें कन्दिवसु वि सो होसइ । साहसगइहे जुझ जो देसइ । (47.3 प.च.)
-अवश्य ही किसी दिन वह (मनुष्य) उत्पन्न होगा, जो सहस्रगति के साथ
युद्ध करेगा। 13. अज्जही तुहं महु राणाउ । (20.11 प.च.)
-प्राज से तुम मेरे राजा (हो) ।
(4) 1. झत्ति पलित्तउ अणुहरमाणु हुासहो । (60.1 प.च.)
--(वह) (लक्ष्मण) आग का अनुकरण करते हुए शीघ्र भड़क उठा।
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[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ
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