________________
(16) अवराह दोण्णि अज्ज वि खमीसु । (2.18 क.च.)
-हे प्रभु ! अन्य दो (फलों के ऋण) को आज ही क्षमा कीजिए। (17) जेहिं ण सेविय छह अणायदण । (9.12 णा.च.)
-जिनके द्वारा छह अनायतन सेवन नहीं किए गए हैं (वे सम्यग्दृष्टि हैं)। (18) एयारह पडिमउ सावयाह । (1.12 णा.च.)
-श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएं होती हैं । (19) एयारह-पडिमउ सावयह जेण वियारिवि उत्तियउ । .
उद्धरिय जेण बारह वि तव तेरह चरिय विहत्तियउ । (3.17 जस.च.) -विचार करके जिसके द्वारा श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएँ कही गई हैं।
जिनके द्वारा जारह तप ग्रहण किए गए और चारित्र तेरह कहे गये हैं। (20) तेरसविहु चारित्तु चरन्तहो । (3.2 प.च.)
-तेरह प्रकार के चारित्र का आचरण करते हुए (जिनेन्द्र के ज्ञान उत्पन्न
हुआ)। (21) चउदह रज्जुय पायामु जासु । (1.11 प.च.)
---जिस (लोक) का आयाम चौदह राजू है । (22) पण्णारह-कमलायत्त-पाउ । (1.7 प.च.)
-पन्द्रह कमलों के विस्तार पर पैर रखनेवाले (वर्द्धमान विपुलाचल पर
ठहरे)। (23) केहि मि वाइउ वज्जु मणोहरु । बारह-तालउ सोलह-अक्खरु । (2.4 प च.)
--किसी के द्वारा बारह ताल और सोलह अक्षरवाला मनोहर वाद्य बजाया
गया । (24) सत्तारह संजम पालन्तहो । (3.2 प.च.)
-सत्रह (प्रकार के) संयम को पालन करते हुए (जिनेन्द्र के केवलज्ञान
उत्पन्न हुआ)। (25) अट्ठारह वि दोस णासन्तहो । (3.2 प.च.)
-अठारह दोषों को नष्ट करते हुए (जिनेन्द्र के केवलज्ञान उत्पन्न हुमा)। (26) तुहुँ एवहिं एक्कुणवीसमउ । (12.5 प.च.)
-तुम अब उन्नीसवें हो।
48 ]
[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org