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(48) कंचरण-रयणहँ कोडिउ वारह । पडिय लक्ख बत्तीसट्ठारह । (2.17 प. च.)
-बारह करोड़ बत्तीस लाख अट्ठारह रत्नों की वर्षा हुई । (49) सउ अट्ठोत्तर चित्त पडाय । (3.4 प.च.)
-चित्र पताकाओं की एक सौ पाठ (संख्या थी)। (50) तिणि लक्ख सावयहुँ पासिद्धहुँ । (3.10 प.च.)
-प्रसिद्ध श्रावकों की तीन लाख (संख्या थी)। (51) चउरासी सहास पव्वइया । (3.10 प.च.)
-चौरासी हजार (मनुष्य) प्रव्रजित हुए । (52) अट्ठारह कोडिउ हयवराहुँ । (3.13 प.च.)
-हाथियों की मट्ठारह करोड़ (संख्या थी) । (53) मारणवइहिं भाइहिं वरिटठु । (4.2 प.च.)
-- (वह) अट्ठानवे भाइयों में वरिष्ठ है । (54) जिह भायर अट्ठारणवइ इयर । जीवन्ति करेवि तहो तणिय केर। (4.3
प. च.)
-जिस प्रकार दूसरे भट्ठानने भाई उसकी सेवा करके जीते हैं। (55) जिणु पव्वइउ तुरन्तु रसहिं सहासहि सहियउ । (5.2 प च.)
-दस हजार (मनुष्यों) के साथ (अजित) जिन तुरन्त दीक्षित हुए। (56) अण्णु वि एक्कुणसट्टि पुराण इँ । जिण सासणे होसन्ति पहारा ई । (5.9
प.च.)
--और भी उनसठ उत्तम पुराण (पुरुष) जिन-शासन में होंगे । (57) विज्जहुँ सहासु उप्पणु किह तित्थयरहो केवलणाणु जिह । (9.11
प. च.) -जिस प्रकार तीर्थकर के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी प्रकार उसकी
विद्याओं की एक हजार (संख्या) उत्पन्न हुई। (58) घणु एक्कु एक्कु णरु दुइ जे कर । (15.4 प.च.)
~एक धनुष, एक मनुष्य और दो हाथ (थे)।
प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ]
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