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4. धणहरु सरु सारहि छत्त-दण्डु । जं वारिणहिं कि उ सय खण्ड-खण्डु । तं अमरिस-कुद्धे दुद्धरेण । संभरिय विज्ज विज्जाहरेण । (37.15 प.च.) -जब बाणों के द्वारा धनुष, सर, सारथि और छत्र-दण्ड सौ-सौ टुकड़े कर दिए गए तब क्रोध से क्रुद्ध दुर्जय विद्याधर के द्वारा विद्या का स्मरण
किया गया। 5. जं दुक्खु-दुक्खु संथविउ राउ । पडिवोल्लिय णिय-घरिणिए सहाउ ।
(37.6 प.च.) -जब बड़ी कठिनाई से राजा आश्वस्त किया गया (तब) निज पत्नी द्वारा
भावपूर्वक पूछा गया । 6. एवहिं सयलु वि रज्जु करेवउ । पच्छले पुणु तव-चरणु चरेवउ । (24.5
प.च.) -इस समय अभी (तुम्हारे द्वारा) समस्त राज्य ही भोगा जाना चाहिए.
पीछे/फिर तप का आचरण किया जाना चाहिए । 7. अण्णु वि थोवन्तर जाइ जाम । गम्भीर महाणइ दिट्ट ताम । (23.13 प च.) '--और भी, जब (वे) थोड़ी दूर तक जाते हैं, तब (उनके द्वारा) गम्भीर
महानदी देखी गई। 8. सीयए वुत्तु 'पुत्त महु एवहिं । छुडु वद्धउ छुडु धरउ सुखेवेहि'(सुख+ एवेहिं)।
(35.2 प.च.) -सीता के द्वारा कहा गया, अभी (तुम) मेरे पुत्र (हो) । शीघ्र बढ़ो, शीघ
इस समय सुख धारण करो। 9. जं णिसुणिउ गाउ भयङ्करु । दासरहि घाइउ । (38.9 प.च.)
-जब भयंकर नाद सुना गया (तब) राम दौड़े। 10. जामहि विसमी कज्जगई जीवहं मज्झे एइ ।
तामहिं अच्छउ इयरु जणु सु-अणुवि अन्तरु देइ । (4.406 हे.प्रा.व्या.) -जब जीवों (मनुष्यों) के सामने विषम कार्य-स्थिति उत्पन्न होती है, तब
साधारण आदमी तो दूर रहे सज्जन भी उनकी अवहेलना करता है। 11. कइयहुं माणेसहुं राय-सिय । (9.6 प च.)
-हम राज्य-लक्ष्मी का अनुभव कब करेंगे ?
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[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम
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