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स्वमे मे देवि दिव्यांगे बूहि कार्य शुभाशुभम् । अनेन दिव्यमंत्रेण शुभां ज्ञात्वा नयेच्च ताम्५६|| प्रातस्तत्र पुनर्गत्वा कृत्वा प्राग्वाद्वीधं रथे । सप्तकृत्वोभिमंत्र्याधिरोपितां तां प्रचालयेत् ॥५७॥ यथा कोटिशिला पूर्व चालिता सर्वविष्णुभिः । चालयामि तथोत्तिष्ठ शीघं चल महाशिले॥५८॥
इति शिलाभिमंत्रणमंत्रः । जिनालयं परीत्य त्रिभवेश्यात्युत्सवेन ताम्। स्वह्नि सिक्त्वा स्वौषधीभिःसिद्धशांतिस्तुती भजेत् क्रमो यथाई योज्योऽयं दारुधात्वादिनापि च । निर्मापयिष्यमाणेऽईदिबे सिद्धथवाऽऽगते॥६०॥
___ इति शिलानयनविधानम् । कारिणी ) जानकर लाना चाहिये ॥ ५५॥ ५६ ॥ प्रातः कालके समम रथको लेजाकर वहां पूजनादिविधि करक सातवार उस शिलाको अनादि सिद्ध मंत्रसे मंत्रित करे। फिर उसको वहांसे आगे कहे हुए मंत्रको पढकर उठावे ॥५७॥ हे महाशिले ! जिस तरह लक्ष्मण कृष्ण आदि । नौ नारायणोंने कोदि ( करोडमन वजनवाली) शिला पूर्वसमयमें उठाई थी। उसी तरह मैं भी। तुझे मूर्ति वनवानके लिये उठाता हूं। सोतू जल्दी उठ,, ऐसा मंत्र कहकर उस शिलाको उठाके रथमें विराजमान करे ॥ ५८ ॥ इस प्रकार शिलाभिमंत्रण मंत्र कहा । वहांसे उत्सवके साथ जिनमंदिरमें लावे और उसकी तीन प्रदक्षिणा देकर शुभ दिनमें उत्तम औषधियोंसे शिलाको ४ धोकर मंदिरमें रक्खे उसके बाद सिद्धस्तुति शांति विधान करे ॥ ५९॥ जैसा क्रम (विधि)
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