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प्र० सा० सुलग्ने शांतिकं कृत्वा सत्कृत्य वरशिल्पिनम् । ता निर्मापयितु जैनं विंबं तस्मै समर्पयेत्॥६१॥ भाटी०
सदृष्टिास्तुशास्त्रज्ञो मद्यादिविरतः शुचिः।पूर्णागो निपुणःशिल्पोजिनार्ध्यायां क्षमादिमान्६२ ।। शतिप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । संपूर्णभावरूहानुविद्धांगं लक्षणान्वितम् ॥६१॥ रौद्रादिदोषनिर्मुक्तं प्रातिहाकियक्षयुक् । निर्माप्य विधिना पीठे जिनविंचं निवेशयेत्॥६४॥ पत्थरकी शिलाका कहागया है वैसा ही काष्ठ और धातु वगैरःके अर्हतविंब व सिद्धादिविबोंके तयार करानेमें व तयार होके दूसरे स्थानसे आये हुए विंबमें । जानना इसप्रकार शिला वगैरे के लानेका विधान पूर्ण हुआ ॥६० ॥ उसके वाद शुभलग्नमें शांति विधान करके चतुर कारीगरको आदरपूर्वक लाकर जिनविंब तयार करानके लिये शिलाको उसे ? सुपुर्द करदे ॥६१ ॥ जो अच्छी निगाहवाला हो शिल्प शास्त्रको जानने वाला, मदिरा मांस, आदि निंद्य वस्तुओंका त्यागी हो, मनवचन कायसे शुद्ध हो शरीरके अवयकोसे पूर्ण हो चतु: र हो क्षमा आदि गुणोंवाला हो वह शिल्पी जिन प्रतिमाके वनाने योग्य कहा गया है। K॥ ६२ ॥ जो शांत, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासपस्थित अविकारी दृष्टिवाली हो जिसका अंग|| हवीतरागपने सहित हो अनुपम वर्ण हो और शुभ लक्षणों सहित हो । रौद्र आदि बारह
१ उक्तंच-नात्यंतोन्मीलितास्तद्वा न विस्फारितमीलिता । तिर्यगर्ध्वमधोदृष्टि वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥ नासायनिहिता शांता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्या दृष्टिरुत्तमा ॥२ रौद्र, कुशाग, सांक्षप्तांग, चिपिटनासिक.III विरूपकनेत्र, हीनमुख, महोदर, महाहृदय, महाअंस, महाकटी, महापाद, हीनजंघा, शुष्कजंघा-ये दोष हैं।
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