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प्र० सा० साकल्येनैकदेशेन कारातिजितो जिनाः । पंचाईदादयोऽष्टाः श्रुतं चान्यच्च तादृशम् ॥२॥8|भा टी०
|जिनानां यजनं यज्ञस्तस्य कल्पः क्रियाक्रमः। तद्वाचकत्वाच जिन-यज्ञकल्पोऽयमुच्यते ॥३॥ तत्र विश्वोपकारार्थजन्मनां यज्ञमहताम् । प्रागाहुस्तस्य भेदाः स्युः पंच नित्यमहादयः॥४॥
तेषु नित्यमहो नाम स नित्यं यज्जिनोय॑ते । नीतैश्चैत्यालयं स्वीयगेहाद्धाक्षतादिभिः ॥५॥ । अतो नित्यमहोद्युक्तैर्निर्माप्यं सुकृतार्थिभिः । जिनचैत्यग्रहं जीर्णमुद्धार्य च विशेषतः ॥६॥ शल्पका विस्तारसे व्याख्यान करता हूं॥१॥ समस्त अथवा थोडेसे कर्मरूपी वैरियोंको जिसने । जीत लिया है वह जिन कहलाता है इसलिये यहांपर अर्हत सिद्धादि पांच परमेष्टी तथा उनका कहा हुआ द्वादशांग शास्त्र-जिन जानना चाहिए। उन जिन शब्द वाच्य अर्हतादिकका जो पूजन उसे जिनयज्ञ कहते हैं उसकी क्रियाओंके क्रमको कल्प कहते हैं इसलिये जिनपूजाकी क्रियाओंके कमको जो कहे उसीको 'जिनयज्ञकल्प' इस नामसे कहते हैं। यह जिनयज्ञकल्पका अक्षरार्थ हुआ ॥२॥३॥ उनमें सबसे पहले अर्हत की पूजाका क्रम कहा ? जाता है क्योंकि मुख्यतासे उन तीर्थकर अर्हतका ही जन्म जगतजीवोंके उपकारके लिए होता है है। उस पूजाके नित्यमह चतुर्मुख रथावर्त कल्पवृक्ष इंद्रध्वज-ये पांच भेद आचार्योंने कहे : हैं ॥४॥ उन पांचोंमेंसे नित्यमह नामकी पूजा वह है कि जो अपने घरसे चंदन अक्षतादि ॥१॥ अष्टद्रव्यको चैत्यालय (जिनमंदिर ) में लेजाकर उससे जिनेन्द्रका पूजन किया जावे ॥५॥ इसलिये पुण्यके चाहनेवालोंको नित्यमह पूजनमें उद्यमी होके जिनमंदिर वनवाना चाहिये
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