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चतुरस्रे कृते पंचवर्णचूर्णेन मंडल । चतुर्द्वारेष्टपत्राब्जगर्भे न्यस्यांबुजोदरे ।। २५ ।। जिनादीन् मंगले लोकोत्तमैश्च शरणैर्युतान् । अनादिसिद्धमंत्रेण पूजयेद्दिग्दलेष्वनु ॥ २६ ॥ देवीर्जयाद्या जंभाद्या विदिक्पत्रेषु तद्बहिः । लोकपालान् यजेद्दिक्षु स्वस्वमंत्रैस्तथा ग्रहान२७ तत्र संस्थाप्य सत्पीठे जिनाच समहोत्सवाम् । प्रीतः प्रीतेन संघेन संयुक्तो याजकोत्तमः २८ संस्नान्यादाय गंधांबुचरुपुष्पाक्षतादिकम् । दद्याद्वलिं स्वमंत्रेण विश्वविघ्नोपशांतये ॥ २९ ॥ | एवं स्थंडिल पातालवास्तुपूजाद्वयोत्तरम् । विधाप्य मसृणं क्षेत्रमित्थं तद्वास्तु पूजयेत् ||३०|| इति स्थंडिल पातालवास्तुद्वय पूजाविधानम् ।
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उस जिन मंदिरके चारों दरवाजांके सामने पांच रंगके चूर्ण से चौकान मांडला बनावे और आठ पांखुडीके कमलके आकार तांबेके पात्रमें लोकोत्तम शरणरूप जिन | आदिको अनादि सिद्ध मंत्र से पूजै ॥ २५ ॥ २६ ॥ उसके बाद दिशाओंके चार पत्रोंपर जया आदि देवियांका और विदिशाओंके चार पत्रोंपर जंभा आदि देवियोंका तथा उसके बाहर चार लोकपालांका और नव ग्रहांका अपने २ मंत्रांसे पूजन करे ॥ २७ ॥ फिर उत्तम सिंहासनपर जिन भगवानकी प्रतिमाको विराजमान करके वह उत्तम यजमान ( पूजा करानेवाला) प्रेमयुक्त श्रावकादि समूहसे घिरा हुआ प्रसन्न चित्तसे जिन पूजा करें ॥ २८ ॥ पहले तो सुगंधित जलसे अभिषेक करे पश्चात् जल चंदन अक्षतादि आठ द्रव्य लेकर अपने २ मंत्र से सब विघ्नोंकी शांतिके लिये पूजा करें ॥ २९ ॥ इस प्रकार चबूतरा और
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