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भूपातालक्षेत्रपीठवास्तुद्वारशिलार्चनाः। कृत्वा नरं प्रवेश्या- न्यस्यात्रारोपयेद् ध्वजम्॥१६॥ जनं चैत्यालयं चैत्यमुत निर्मापयन् शुभम् । वांछन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लंघयेत् १७| शरम्ये स्निग्धं सुगंधादिदूर्वाद्याढयां स्वतः शुचिम्। जिनजन्मादिना वास्ये स्वीकुर्याद्भूमिमुत्तमाम ।
खात्वा हस्तमधः पूर्णे गर्ने तेनैव पाशुना । तदाधिक्यसमोनत्वे श्रेष्ठा मध्याधमा च भूः॥१९॥ नमस्कार मंत्रका जाप करता हुआ सो जावे और उस सोती हुई अवस्थामें मुनि गाय आदिको देखे तो शुभफल कहे और शकुन शास्त्रमें कही हुई अशुभ वस्तुओंको देखे तो अशुभ फल कहे ॥ १५ ॥ अपनी भूमि पातालभूमि पूरितभूमि चौकी देवगृह शिला--इनकी पूजा करके सोनेके बनाये हुए मनुष्याकार पुंतलेको रख उसकी पूजा करके वाद ध्वजा चढावे ॥ १६ ॥ जो अपना और राजा प्रजाका कल्याण चाहता है उसे वास्तुशास्त्रके अनुसारही जिनमंदिर और जिन प्रतिमाको बनवाना चाहिये ॥१७॥ ऐसी जमीनको मंदिर बनवानेके लिये पसंद करे कि जो चिकनी हो तथा सुंगंधीसे या दूव वगैर: घाससे या तो स्वयं शुद्ध हो या जिनेन्द्र के किसी एक कल्याणकसे पवित्र हो ॥ १८॥ बह भूमि एक हाथ गहरी और एक हाथचौडी खोदे उससमय उसी निकली हुई मट्टीसे गढा भरदे जब खड्डा भरनपरे अधिक ४ अमट्टी मालूम पड़े तव समझना चाहिये कि भूमि उत्तम है, समान होवे तो मध्यम तथा कम ।
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इस पुतलेकी विधि आगे कही जावेगी। घर वगैरः वनानेकी विधि वृतलानेवाला शिल्पिशास्त्र ।