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प्र०सा० रेखाभिस्तिर्यग्रवाभित्राग्राभिः सुलेखिते । एकाशीत्यष्टपत्राब्जगर्भकोष्ठेऽत्र मंडळे ॥३१॥ भान्टी० यजेन्मध्यांबुजेनादिसिद्धमंत्रेण सद्गुरून् । जयादिदेवीः स्वैर्मत्रैः पछेषु बहिरष्टसु ॥ ३२ ॥
अ०१ षोडशस्वर्चयेद्विद्यादेवीः शासनदेवताः । द्विादशेषु द्वात्रिंशत्पष्चिंद्रानतो बहिः ॥ ३३॥ इंद्रादीन् दिक्षु यज्यांश्च वज्राग्रेषु ततो ग्रहान् । जिना तत्र पीठस्थां संस्नाप्याभ्यर्च्य पूर्ववत्३४ । सर्वोषधीपंचरत्नमिश्रतीर्थीबुपूरितान् । पंचताम्रमयान् कुंभान् दधिदूर्वाक्षतार्चितान् ॥३५॥|| नींवकी भूमि-इन दोनोंकी पूजाकरके चीकनी जगह करावे ॥३०॥इस प्रकार चबूतरा और है। नींवकी भूमि-इन दोनोंकी पूजाका विधान समाप्त हुआ। उसके बाद बृहत्शांति नाम एक | चौकोण मंडल वनावे उसकी विधि इस प्रकार है कि पहले तो उसके चारों तरफ इक्यासी लकीरें अग्रभागमें वज्र चिह्न वालीं खींचे फिर उस कोठेके बीच में आठ पत्तेवाला कमल वनावे ॥ ३१ ॥ उस कमलके मध्यमें पंच परमेष्ठियोंको स्थापन करके अनादि सिद्ध मंत्रसे पूजा करे। उसके वाद आठ कमलपत्रोंपर स्थित जया आदि आठ देवियों की पूजा करे॥३२॥ पश्चात् रोहिणी आदि सोलह विद्या देवियोंके चक्रेश्वरी आदि चौवीस शासन देवताओंके कोठे तथा बत्तीस यक्षोंके कोठे खींचे। उसके वाद चारों दिशाओंमें इंद्र वरुण आदि चार दिक्पालोंको स्थापन करे फिर वज्रके आगेके भागमें नव ग्रह स्थापन करना चाहिये। उस मध्य कमलके ऊपर सिंहासन रखे उसपर जिनप्रतिमा रखकर उसका अभिषेका ॥४॥
पूजन करना चाहिये ॥ ३३॥ ३४॥ उसके वाद चारों कोनोंमें चार शिला तथा एक
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