Book Title: Prashnottaraikshashti Shatkkavyam
Author(s): Jinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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राजा तत्पुत्र सा. सारङ्ग तत्पुत्र सा. रतनसी सा. जइतसी तत्पुत्र सा. थिरराजसुश्रावकेण स्वपितुर्द्रव्यश्रेयोर्थे ज्ञानभक्त्यर्थे च श्रीजेंसलमेरुसत्कज्ञानकोशे श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिप्रतिरेषा । सा वाच्यमाना चिरं नन्दतु।
__इसकी प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जेसलमेर क्रमाकं ८५ पर सुरक्षित है। पत्र संख्या २३५ है। और, आचार्य श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा (गांधीनगर) क्रमांक संख्या ११९ पर प्राप्त है।
२. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्यवृत्ति - महोपाध्याय पुण्यसागरजी ने इस टीका का नाम 'काव्यकल्पलतिका' रखा है। इसकी रचना विक्रम संवत् १६४० बीकानेर में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में की है। रचना में पद्मराजगणि का सहयोग रहा है।
इस टीका में प्रत्येक वाक्य का अर्थ निर्धारण किया है। प्रश्नगत उत्तरों का समीचीन विवेचन किया है। अर्थप्रयोग और वाक्यसिद्धि करने के लिए पाणिनीय व्याकरण के सूत्र और धातुपाठ तथा अनेकार्थी कोषों का यथा स्थान आश्रय लिया है। टीका विस्तृत और पठनीय है। इसकी पूर्ण रचना प्रशस्ति निम्नलिखित है:
आसीत्पुरा खरतराभिधगच्छनाथः, श्रीमान् जिनेश्वरगुरुः शुभशाखिपाद्यः। सूरिस्ततोऽपि जिनचन्द्र इति प्रतीतः शीतद्युतिप्रतिमचारुगुणैरुदीतः॥ १॥
तदनु कीर्तिभरैरविनश्वराः, शुशुभिरेऽभयदेवमुनीश्वराः। विहितचङ्गनवाङ्गसुवृत्तयः परहितोद्यतमानसवृत्तयः॥ २॥
तत्पट्टोदयशैलमौलितरणिः संविज्ञचूडामणिः, सूरिश्रीजिनवल्लभः समभवद्वादीभकुम्भेसृणिः।
तत्पट्टे जिनदत्तसूरिसुगुरुः सर्वाङ्गविद्यावधिः; शुद्धाम्नायविधिःसुधाविधुदधिप्रोद्यद्गुणाम्भोनिधिः॥ ३ ॥ तत्सन्ततौ समजनिष्ट गरिष्ठधामा, सूरीश्वरः श्रुतधरो जिनभद्रनामा। श्रीजैनचन्द्रगणभृद्गुणरत्नराशे रब्धिस्ततो जिनसमुद्रगुरुश्चकाशे ॥४॥
तत्पट्टराजीवसहस्ररश्मय-स्ततो बभुः श्रीजिनहंससूरयः। तेषां विनेयैर्विवृत्तिर्विनिर्ममे यत्नादियं पाठकपुण्यसागरैः॥ ५॥ समर्थिता विक्रमसत्पुरेऽसौ, वृत्तिर्वियद्वार्द्धिरसेन्दु [१६४०] वर्षे । गुरौ शुभश्वेतसहो दशम्यां, श्रीजैनचन्द्राभिधसूरिराज्ये॥६॥
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