Book Title: Prashnottaraikshashti Shatkkavyam
Author(s): Jinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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इति - ३:
॥ ग्रन्थाग्रं १५०० ॥ श्रीरस्तु लेखक-वाचकयोः॥ शुभं भवतु॥ वस्वाह का मुररिपोर्दयिता च जिग्ये, केन त्रिविष्टपमिदं सममत्र जेत्रा। वर्षे गुहाननपयोधिरसेन्दुमाने केन प्रतिर्विलिखिता लिपि चञ्चुनेयम्॥१॥
॥ कनकसारेण ॥ व्यस्तसमस्तजातिः॥ श्रीरस्तु॥ प्रतिलिपिकार कनकसार प्रौढ़ विद्वान् प्रतीत होता है क्योंकि उसने लेखन प्रशस्ति में लेखन संवत् और स्वयं का नाम व्यस्तसमस्त जाति चित्रकाव्य में प्रश्नोत्तर रूप में प्रदान किया है। प्रति शुद्ध है।
सम्पादन शैली में जिस प्रति का भी टीका सम्मत शुद्ध पाठ नजर आया है उसे ऊपर दिया गया है और दूसरी प्रतियों के मूल एवं टीका के पाठान्तर उसी पृष्ठ पर दिए गए हैं। परिशिष्ट परिचय
प्रस्तुत पुस्तक में पाँच परिशिष्ट दिए गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्य के श्लोकों की अनुक्रमणिका दी गई है। द्वितीय परिशिष्ट में प्रश्नोत्तरों की जातियाँ दी गई हैं। तृतीय परिशिष्ट में प्रश्नोत्तर जातियों की अकारानुक्रम से सूची दी गई है। चतुर्थ परिशिष्ट में काव्यस्थ पद्यों का छन्दानुक्रम दिया गया है। पंचम परिशिष्ट में टीकाकार द्वारा उद्धृत ग्रन्थों के उद्धरण का स्थल श्लोकानुक्रम से दिया गया है। आभार
___ मुझे परम हर्ष है कि शासनसम्राट आचार्यपुङ्गव श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में पूज्य आचार्य श्री विजयकस्तूरसूरिजी महाराज के प्रशिष्य एवं सूरिमन्त्राराधक श्री विजयअशोकचन्द्रसूरिजी महाराज के शिष्यरत्न व्याकरण शास्त्र के प्रखर विद्वान् श्री विजयसोमचन्द्रसूरिजी महाराज ने इस महाकाव्य की महत्ता को समझा और इसके संशोधन-सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य सहज भाव से स्वीकार किया। मुनि श्री सुयशचन्द्रविजयजी एवं
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