Book Title: Prashnottaraikshashti Shatkkavyam
Author(s): Jinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 135
________________ शुक्लपक्षिविशेषशोभितं वियद् आकाशं वीक्ष्य के सदृशोत्तरं प्रश्नम् आचष्ट अवदत्। तथाहि- 'नभसि आकाशे अकनत् शुशुभे धवला का?' इति प्रश्ने इदमेवोत्तरम्- नभस्य:-भाद्रपदमासः, तस्य कं- पानीयम्, तेन नद्धः-बद्धो नभस्यकनद्धः, तत्सम्बोधनम्- हे नमस्यकनद्ध ! बलाकाबिसकण्ठिका ॥ समवर्णप्रश्रजातिः ॥ १११॥ भूरभिदधाति शरदिन्दु-दीधितिः केह भाति पुष्पभिदा ? प्रथमप्रावृषि वर्षति जलदे कः कुत्र सम्भवति?॥ ११२॥ ॥ हेवनिनवमालिका॥ गतागतः॥ व्याख्या:- भूर्वक्ति- शरदिन्दुदीधितिः पुष्पभिदा का भाति?– हेऽवनि! भूमे! नवमालिका सितकुसुमजातिविशेषः। प्रथमप्रावृषि जलदे वर्षति सति कुत्र कः सम्भवति? कालिमा कृष्णत्वं वननिवहे वनसमूहे ॥ गतप्रत्यागतजाति: ॥ ११२॥ कीदृक्षः सन्निह परभवे कीदृशः स्याद्धितैषी ?, . का कीदृग् स्याद्वद गदवतामत्र दोषत्रयच्छित् ?। का कीदृक्षा पुरि न भवतीत्याहतुरिभृङ्गौ ?, . चाहतुवारभृङ्गा:, कीदृश्यो वा कुवलयदृशः कामिनां कीदृशः स्युः? ॥११३॥ ॥ सदयः॥ मधुरता॥ विपण्यावली॥ गौरवपुषः॥ [द्विःसमस्तजातिविशेषः।] व्याख्या:- हितैषी हितेच्छुर्जन इह लोके कीदृक्षः सन् परभवे "समवर्णप्रश्रजातिः' इति न ३। 'गतप्रत्यागतजातिः' इति न । 'कीदृक्का ' इति १। कल्पलतिकाटीकया विभूषितम्

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