Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Hemchandracharya, K V Apte
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 8
________________ प्रस्तावना भारत की कुछ विशिष्ट प्राचीन भाषाओंको प्राकृत नाम दिया जाता है । उसका व्याकरण कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रने संस्कृतमे लिखा है । यह प्राकृत व्याकरण विस्तृत और प्रमाणभूत है। हिंदी अनुवाद सहित वह सम्पूर्ण व्याकरण यहाँ पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है । भारतीय भाषाओं में प्राकृत भारतीय भाषाओंका आर्यभाषा और आर्येतर भाषा ऐसा वर्गीकरण किया जाता है । उनमें से आर्य भाषाएँ भारतीय इतिहास-संस्कृति से घनिष्ठ रूप में संबंधित हैं । पिछले चार साढ़े चार सहस्र वर्षोंसे आर्य भाषाओंका विकास भारत में चल रहा है । इन्हीं आर्यभाषाओं में प्राकृतका समावेश होता है । प्राकृत शब्द का अर्थ प्राकृत शब्दको निश्चित व्युत्पत्ति तथा अर्थ - इनके बारेमें विद्वानों में मतभेद है । ( अ ) कुछ लोगोंके मतानुसार, प्राकृत शब्द संस्कृतके 'प्रकृति' शब्द से सिद्ध हुआ है । तथापि प्रकृति शब्दसे क्या अभिप्रेत है इसके बारे में भी मतभिन्नता है । (१) भारतीय प्राकृत व्याकरणोंके 'मतानुसार, प्रकृति शब्दसे संस्कृत भाषा सूचित होती है । संस्कृतरूप प्रकृतिसे उद्भुत वह प्राकृत ऐसा अर्थ होता है। प्राकृतका मूल (योनि ) संस्कृत है; संस्कृतरूप प्रकृतिकी विकृति यानी विकार प्राकृत है । इसका अभिप्राय यह है कि संस्कृत भाषा से ही प्राकृत भाषा निर्माण हुई है । (२) कुछ पंडितों के मतानुसार प्रकृति शब्दसे संस्कृत भाषा अभिप्रेत नहीं है । प्रकृति शब्दका अर्थ है मूल स्वभाव, इसलिए प्राकृत यानी मूलत: अथवा स्वभावत: सिद्ध होनेवाली भाषा है । (३) कुछ लोगों के मतानुसार, प्रकृति यानी जनसाधारण अथवा सामान्य लोग; उनकी जो भाषा" बह प्राकृत है । सामान्यजनोंके जिस भाषा पर व्याकरण इत्यादि संस्कार नहीं हुए हैं ऐसी सहज होनेवाली भाषा प्रकृति है; वही प्राकृत है; अथवा उस प्रकृति से सिद्ध होनेवाली प्राकृत है । एवं सर्वसाधारण लोगों की संस्काररहित / अकृत्रिम भाषा प्राकृत है । ( आ ) नमिसाधु प्राकृत शब्दको व्युत्पत्ति ऐसी भी देता है :- प्राक् कृत यानी प्राकृत, यानी पहले की हुई, और स्त्री, बाल इत्यादिको समझने में सुलभ होनेवाली "वह प्राकृत है । प्राकृत शब्दका एक नया स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया जा सकता है: -- 'संस्कृत भाषा' शब्द प्रचार में आनेपर भाषा बोधक प्राकृत शब्द प्रचार में आया । अभिप्राय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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