Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 8
________________ (दीक्षा) ली और काम-क्रोध आदि विकराल शत्रुओं के पक्ष का निग्रह किया। निगंठो आवुसो नातपुत्तो सव्वण्णु सव्वदरस्सी। अपरिसेसे णाण दस्सण परिजानाति ।। -(मज्झिमनिकाय, भाग 1). अर्थ :- आयुष्मान निगंठ (निर्ग्रन्थ) नातपुत्त (ज्ञातृपुत्र) (भगवान महावीर) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। वह अपने अपरिशेष (असीम) ज्ञान-दर्शन द्वारा सब कुछ जानते हैं। सो जयदि जस्स केवलणाणुज्जल-दप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिंबं दीसदि वियसिय, सयवत्त-गब्भउरो वीरो।। ---(आचार्य गुणधर) अर्थ :--- जिनके केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल दर्पण में लोकालोक स्पष्ट प्रतिबिंबित हुये दीखते हैं और जो विकसित कमल-गर्भ के समान तप्त-स्वर्णाभ हैं, वे वीर भगवान् जयवन्त हों ! ण पॅम्मे णिसण्णो महावीर-सण्णो । तमीसं जदीणं जए संजदीणं ।। दमाणं जमाणं खमा संजमाणं । उद्दाणं रमाणं पबुद्धत्थमाणं ।। दया-वड्ढमाणं जिणे वड्ढमाणं। सिरेणं णमामो।। --(आचार्य पुष्पदन्त) अर्थ :- प्रेम में निस्संग (विषय-वासना में अनासक्त) महावीर हमारे लिये शरण हैं। उस इन्द्रियजयी संयमी ईश की जय हो ! दम, यम, क्षमा, संयम के धारक, अभ्युदय एवं निःश्रेयसरूप उभय लक्ष्मी में रमण करनेवाले, सम्पूर्ण तत्त्वार्थ के ज्ञाता तथा वृद्धिंगत दयावान वर्द्धमान जिनेन्द्र को हम मस्तक झुकाकर नमन करते हैं। नम: श्री वर्द्धमानाय निर्दूत-कलिलात्मने। सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते।। -(आचार्य समन्तभद्र) अर्थ :-- जिन्होंने अपनी आत्मा से कर्ममल धो डाला है और जिनकी विद्या (ज्ञान) में अलोकाकाश-सहित तीनों लोक दर्पणवत् प्रतिबिंबित होते हैं, उन श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार है। नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुज-भास्कराय । अनन्तलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ।। -(पूज्यपाद देवनन्दि) अर्थ :- समस्त प्राणियों का हित करनेवाले, भव्यरूपी अम्बुजों (कमलों) को सूर्य के समान प्रफुल्लित करनेवाले, अनन्तलोक को देखनेवाले, सुरों (देवों) द्वारा अर्चित (पूजित) देवाधिदेव वीर जिनेन्द्र को बारम्बार नमस्कार है। संसार-दावानल-दाह-नीरं, संमोह-धूलीहरणे समीरम् । मायारस-दारण-सार-सीरं, नमामि वीरं गिरिसार-धीरम् ।। -(आ० हरिभद्रसूरि) अर्थ :- संसाररूपी दावानल की दाह (ज्वाला या जलन) को शान्त करने के लिये नीर (जल) के समान, सम्मोहरूपी धूल को उड़ाने के लिये समीर (हवा) के समान, माया 06 प्राकतविद्या-जनवरी-जन'2001 (संयक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक.ry.org

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