Book Title: Prakrit Vidya 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 7
________________ मंगलाचरण वर्द्धमान महावीर : ग्रन्यों के आलोक में सिद्धत्थराय पियेकारिणीहि कुंडले वीरे। उत्तरफागुणि-रिक्खे चित्तसिया तेरसीए उप्पण्णो।। ---(यतिवृषभ) अर्थ :- कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के घर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को उत्तरफाल्गनी' नक्षत्र में वीर प्रभु का जन्म हुआ। जिण-जम्महो अणुदिय सोहमाण, णिय-कुल-सिरि देक्खेवि वड्ढमाण । सिय माणुकलाइ सहुँ सुरेहिं, सिरि सेहर - रयणहि भासुरेहिं ।। दहमे दिणि तहो भव बहु निवेण, किउ 'वङ्माण' इउ णामु तेण ।। -(विवुध श्रीधर) अर्थ :- जिसकी जन्म लेने के उपरान्त दिनोंदिन शोभा बढ़ती गई और जिसके जन्म लेने पर कुल की श्री (लक्ष्मी) उसीप्रकार वर्द्धमान हुई, जैसे दिन में भानु की कलाओं और रात्रि में चन्द्रमा की कलाओं की श्री (शोभा) बढ़ जाती है; इसीलिए जन्म से दसवें दिन उस भवावलि-निवारक शिशुरूप प्रभु का नाम 'वड्ढमाण' (वर्द्धमान) रखा गया। विशाला जननी यस्य विशालं कुलमेव च। विशालं वचनं चास्य तेन वैशालिको जिन: ।। – (सूत्रकृतांग टीका) अर्थ :- जिनकी जननी विशाला (बड़े कुल व श्रेष्ठ आचरणवाली) कुल विशाल (उच्च) तथा वचन विशाल आशयवाले थे, वे जिनेन्द्र प्रभु इन कारणों से 'वैशालिक' कहलाते थे। सन्मतिर्महतिर्वीरो महावीरोऽन्त्यकाश्यपः। नाथान्वयो वर्धमानो यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ।। -(कवि धनञ्जय) अर्थ :-- जिनका तीर्थ (धर्मतीर्थ) लोक में सम्प्रति (इस समय) चल रहा है, वे सन्मति, महतिवीर, महावीर, अन्त्यकाश्यप (काश्यप-गोत्रीय), नाथान्वयी वर्द्धमान हैं। सो णाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊण पब्बइयो। काम-कोह-महासत्तुपक्ख णिग्घायणं कुणइ।। -(अनुयोगद्वार सूत्र) अर्थ :-- उन्हीं का नाम महावीर है, जिन्होंने राज्य-वैभव का परित्याग कर प्रव्रज्या प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 905 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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