Book Title: Pattavali Parag Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 13
________________ [ पट्टावली-पराग को वन्दन किया है उस वाचकपरम्परा को अर्थात् अनुयोगधरों की पट्टावली को हम "द्वितीय स्थविरावली" मानते हैं । उक्त दोनों स्थविरावलियां सूत्रोक्त होने से हम इन्हें "सौत्र स्थविरावलियाँ" कहते हैं । सौ त्रस्थविरावलियों का निरूपण करने के अनन्तर बीच में दिगम्बर संप्रदाय के संक्षिप्त स्वरूप का भी दिग्दर्शन कराया है। "चन्द्रकुल" की उत्पत्ति के बाद जो प्राचार्यपरम्परा चली है उसमें, कहीं कहीं मतभेद भी दृष्टिगोचर होते हैं, फिर भी उसकी मौलिकता में वास्तविक अन्तर नहीं पड़ता। इसी परम्परा को "तपागच्छ" ने अपनी मूल परम्परा माना है और यह मान्यता ठीक भी है। तपागच्छीय पट्टावलियों के अन्त में "प्रकीर्णक पट्टावलियां" दी हैं, जिनमें अधिकांश "तपागच्छ की शाखा-पट्टावलियां" हैं, और कुछ स्वतंत्र गच्छों की पूर्ण, भपूर्ण पट्टावलियां भी हैं जो जिस हालत में मिली उसे उसो हालत में ले लिया है। "खरतरगच्छ' के अधिकांश लेखक "श्रीवर्द्धमानसूरि" से अपनी पट्टावलियां शुरु करते हैं । कई लेखकों ने प्रारंभ से अर्थात् सुधर्मा से भी पट्टावलियां लिखी हैं, परन्तु उसमें वे सफल नहीं हुए। अनेक छोटी बड़ी गुर्वावलियों और प्रबन्धों में अपनी परम्पराएँ लिखी हैं, परन्तु उनमें मौलिकता की मात्रा कम है। ग्रन्थ के अन्त में दो ऐसे गच्छों की पट्टावलियां दी हैं जो गच्छ गृहस्थ व्यक्तियों से प्रचलित हुए थे। इन दो गच्छों में, पहला है "लौंका गच्छ'' जो "लक्खा" नामक पुस्तक-लेखक से चला था, जो आजकल "लौकागच्छ" के नाम से प्रसिद्ध है । दूसरा "गृहस्थगच्छ' "कडुपा-मत गच्छ” इस नाम से प्रसिद्ध है, इस गच्छ का नेता गृहस्थ होता है और "शाहजी" कहलाता है। इस के खंडहर "थराद" में आज भी विद्यमान हैं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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