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मंगलाचर सा
वर्धमानं जिनं नत्वा, वर्धमानगुणोदधिम् । पट्टावली-परागस्य, संग्रहोऽयं विधीयते ॥१॥ दशाश्रुताऽष्टमाध्याये, कल्पाध्ययननामनि । स्थविरावलिका दृब्धा, प्राच्यः सा प्रथमा मता ॥२॥ नन्दीमङ्गलमध्यस्था, वाचकानामथावलिः । एषा वाचकवंशस्य, द्वितीया स्थविरावली ॥३॥ स्थविरावलिकायुग्मं, सौतमेतत्प्रकीर्तितम् । अत्र दिगम्बराम्नाय-संक्षेपोपि प्रदर्शितः ॥४॥ चन्द्रकुलोद्भवादने, सूरिपट्टपरम्परा । । कचिद् भिन्ना क्वाप्यभिन्ना, "तपागच्छ” मताऽऽहता ॥५॥ अनेकगच्छसंबद्धाः पट्टावल्यः प्रकीर्णकाः । सम्पूर्णाः खण्डिता वापि, यथालब्धास्तथाऽऽहताः ॥ ६ ॥ आचार्यवर्धमानाद्धि, खरभाषिमताः स्मृताः । गुर्वावल्य प्रबन्धादि-पट्टावल्यो ह्यनेकधा ॥७॥ लक्ष--लेखक-कड्वादि--गृहस्थमतविस्तृतम् ।
पट्टावलीद्वयं प्रान्ते, विस्तरेण विवेचितम् ॥८॥ अर्थ : बढ़ते हुए गुणों के समुद्र ऐसे श्रीवर्धमान जिनको नमन करके पट्टावलियों के सार का यह संग्रह किया जाता है। दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टमाध्ययन में, जिसका नाम “पर्युषणा कल्पाध्ययन" है, पूर्वाचार्यों ने स्थविरावली बनाकर उसके अन्तर्गत की, उसको हम "प्रथम स्थविरावली" मानते हैं । नन्दी सूत्र के मंगलाचरण में अनुयोगधरों की जिस वाचकपरम्परा
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