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५२/पार्श्वपुराण
एक एकके भाग प्रमान | करि सौ बरस समय परवान | इहिबिध रासि होय फिर एह । समय समय प्रति लीजै तेह ||२२५।। ऐसे करत लगै जो काल | सोई अर्धापल्य विसाल | करमनकी थिति यासौं जान । यह उत्कृष्ट कही भगवान ||२२६।।
दोहा। प्रथम पल्य संख्यातमित, दुतिय असंख्यप्रमान | असंख्यातगुन तीसरौ, लिख्यौ जिनागम जान ||२२७।। इन सब तीनौं पल्यमैं, अद्धापल्य महान । दस कोड़ा कोड़ी गये, अद्धासागर ठान ||२२८।। इस ही अद्धासिंधुसौं, पुन्यपाप परभाव । संसारीजन भोगर्दै, सुरग नरककी आव ||२२९।। ऐसे दीरघ काल लौं, नरक सातर्फे थान | कमठ जीव दुख भोगवै, पस्यौ कर्मवस आन ||२३०|| धिक धिक विषय-कषाय मल, ये बैरी जगमाहिं । ये ही मोहित जीवकौं, अवसि नरक ले जाहिं ।।२३१।। धर्म पदारथ धन्य जग, जा पटतर कछु नाहिं । दुर्गतिवास बचायकै, धरै सुरगसिवमाहिं ।।२३२।। . यही जान जिनधर्मकौं, सेवो बुद्धिविशाल । मन तन वचन लगायकैं, तिहुँपन तीनौं काल ||२३३।। इति श्रीपार्श्वपुराणभाषायां वज्रनामअहमिन्द्रसुखभिल्लनरकदुःखवर्णनं
नाम तृतीयोऽधिकारः।
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