Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 152
________________ नौवाँ अधिकार/१५१ चौपाई। जो गुरुनिकट जाय व्रत गहै । घर तजि मठ-मंडपमैं रहै ।। एकवसन तन पीछी साथ | कटि कोपीन कमंडल हाथ ||१९४।। भिच्छा-भाजन राखै पास । चारौं परब करै उपवास || ले उदंडभोजन निर्दोष । लाभ अलाभ राग ना रोष ||१९५।। उचित काल उतरावै केस | डाढ़ी मूंछ न राखै लेस ।। तप विधान आगम अभ्यास । सक्ति समान करै गुरुपास ||१९६।। यह छुल्लक श्रावककी रीत । दूजो ऐलक अधिक पुनीत ।। जाके एक कमर कोपीन । हाथ कमंडल पीछी लीन ।।१९७।। बिधिसौं बैठि लेहि आहार । पानिपात्र आगम अनुसार ॥ करै केसलुंचन अति धीर । सीत घाम सब सहै सरीर ||१९८॥ सोरठा । पानिपात्र आहार, करै जलांजुलि जोड़ि मुनि ।। खड़ो रहै तिहि बार, भक्ति रहित भोजन तजै ।।१९९।। दोहा । एक हाथपै ग्रास धरि, एक हाथसौं लेय ।। श्रावकके घर आयके, ऐलक असन करेय ||२००।। यह ग्यारह प्रतिमा कथन, लिख्यौ सिधांत निहार ।। और प्रस्न बाकी रहे, अब तिनको अधिकार ||२०१।। चौपाई। जे जगमैं पापी परधान । सात व्यसन-सेवक अग्यान || रुद्रध्यान धारै अघमई । अति ही कूर कर्म निर्दई ।।२०२।। झूठ वचन बोलैं सत छोर | परधन परवनिताके चोर || बहु आरंभी बहुपरिग्रही । मिथ्यामतकौं पोर्षे सही ।।२०३।। चंड कषायी अधिक सराग । जिनप्रतिमा-निंदक निर्भाग ।। मुनिवर निंदि पाप सिर लेहिं । जैनधर्मकौं दूषन देहिं ।।२०४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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