Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 160
________________ विबिध विक्रियारिद्धि बलिष्ट । एकसहस जानो उतकृष्ट || मनपरजय ग्यानी गुनवंत । सात सतक पंचास महंत || २८५ ॥ छसै वाद- विजयी मुनिराज । सब मुनि सोलह-सहस समाज || सहस छबीस अर्जिका गनी । एक लाख स्रावक व्रतधनी ॥ २८६ ॥ नौवाँ अधिकार/ १५९ तीनलाख स्त्रावकनी जान । बरनी संख्या मूल पुरान | देवीदेव असंख्य अपार । पसुगन संख्याते निरधार ||२८७|| इहबिध बारह सभा समेत । रतनत्रय - मारग बिध देत ॥ विहरमान दरसावत बाट । सत्तर बरस भये कछु घाट ||२८८|| सम्मेदाचल सिखर जिनेस । आये श्रीपारस परमेस || एक मास जिन जोग निरोध । मन वच काय क्रिया सब रोध ॥ २८९ ॥ सूच्छम कायजोग थिति ठान । त्रितिय सुकल-संजुत तिहिं ठान ॥ तजि सयोगिथानक स्वयमेव । आये फिर अयोगिपद देव ||२९०॥ पंच लघुच्छर है थिति जहां । चतुरथ सुकलध्यान- बल तहां || दोय चरम समये जिन भनी । प्रकृति बहत्तर तेरह हनी || २९१॥ इहि बिध कर्म जीत भगवान । एक समय पहुंचे निर्वान || औ छत्तीस मुनीसर साथ लोकसिखर निवसे जिननाथ ॥ २९२॥ सावन सुदि सातैं सुभ वार । विमल विसाखा नखत मँझार || तजि संसार मोखमैं गये । परमसिद्ध परमातम भये ॥ २९३ ॥ पूरव चरम देहतैं लेस । भये हीन आतम परदेस || अष्टगुनातम-मय व्यवहार । निहचै गुन अनंत भंडार ||२९४।। सादि अनंत दसा परिनये । सिद्धभाव वसुगुनजुत थये ।। परम सुखालय वासो लियो । आवागमन जलांजलि दियौ ॥ २९५॥ दोहा | पंच कल्यानक पाय सुख, जगत जीव उद्धार || भये पूज्य परमातमा, जय जय पासकुमार ||२९६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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